Tuesday, July 16, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - साधू और संत - तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.'- 93 - बसंत

प्रश्न- साधू और संत कितने प्रकार के होते हैं.
उत्तर- वास्तव में साधू और संत का कोई प्रकार नहीं होता, कोई किस्म और भेद नहीं होता. यथार्थ अनुभूत ज्ञान ही उनकी पहिचान है परन्तु ज्ञान और त्रिगुणात्मक प्रकृति के आधार पर चार प्रकार के साधू संत समाज में दिखाई देते हैं.
1 - परमहंस 
2-सतोगुणी साधू 
3- रजोगुणी साधू 
4- तमोगुणी साधू 
1 - परमहंस -आज के युग में परमहंस का मिलना कठिन है.जो कोई परम हंस के नाम से जाने जाते हैं वह गड़बड़ साधू हैं. परमहंस कोई डिग्री नहीं है वह तो दिव्य कमल की भांति सर्वत्र सभी को अपनी सुगंध से आकर्षित करता है. भगवद्गीता में परमहंस योगी के लक्ष्ण बताये गए हैं.
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।56-2।
जिसका मन दुखः में उद्विग्नता को प्राप्त नहीं होता, जिसकी सुखों से कोई प्रीति नहीं है, दोनो अवस्थाओं में जो निस्पृह है, जिसके राग, क्रोध, भय समाप्त हो गये हैं, जो अनासक्त हो गया है, उसकी बुद्धि स्थिर कही जाती है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।57-2।
जो इस संसार में उदासीन होकर विचरता है, सभी वस्तुओं में वह स्नेह रहित होता है शुभ और अशुभ की प्राप्ति होने पर उसे न हर्ष होता है न वह द्वेष रखता है, वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8-5।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ॥
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9-5।
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10-5।।
जो सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति का त्यागकर कर्म करता है और कभी भी कर्म बन्धन में लिप्त नहीं होता है, जैसे कमल का पत्ता जल में रहते हुए भी जल से लिप्त नहीं होता है।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।12-5।
कर्म योगी कर्म फल की आसक्ति का पूर्णतया त्याग करके निरन्तर शान्ति को प्राप्त होता है। क्योंकि वह पूर्ण ज्ञान को प्राप्त हो जाता है; उस सम्पूर्ण ज्ञान की शान्तावस्था में निरन्तर रमण करता है और जो सकाम पुरुष हैं वह विभिन्न इच्छाओं के लिए फल में आसक्त होकर कर्म बन्धन में फॅसते हैं।
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌ ।13-5।
जो मनुष्य नवद्वार वाले शरीर में सभी कर्मो को मन से त्यागकर अर्थात अकर्ता भाव से कर्म करते हुए फल की इच्छा त्याग देता है और शरीर में रहते हुए भी नहीं रहता है, ऐसा वशी पुरुष जिसने मन से इन्द्रियों का निग्रह कर लिया है; जिसकी बुद्धि स्थिर है, जो कर्म फल की इच्छा से मुक्त है, न करता हुआ, न करवाता हुआ आत्मानन्द में रहता
इससे आप यह न समझ लें कि पृथ्वी परमहंस योगी विहीन है. हाँ इनका दर्शन दुर्लभ है और इनकी स्थिति रमता जोगी बहता पानी की तरह है. 

2-सतोगुणी साधू - इस कोटि के साधू भी नगण्य हैं. इस कोटि के संत अपनी साधना में लगे रहते है. यह प्रचार प्रसार से दूर सरल हृदय पुरुष बड़े भाग्य से मिलते हैं. टीवी प्रसारित सत संग में जबरन विवश कर लाये हुए ही यदा कदा दिख सकते हैं.

3- रजोगुणी साधू  - यह दूरदर्शन के साधू हैं जो सदा प्रचार प्रसार में रहते हैं. आज कल इनका ही बोल बाला है. भीड़ इकठी करना, भिन्न भिन्न भेष धारण करना इनका स्वभाव होता है. इनके विषय में तुलसीदासजी लिख  गए हैं. 
'हरइ सिष्य धन सोक न हरई सो गुरु घोर नरक महुं परई.' 

'मिथ्यारंभ दंभ रत जोई ता कहुं संत कहइ सब कोई.'  '

तपसी धनवंत दरिद्र गृही कलि कोतुक तात न जात कही.' आदि.
यह सब वी आई पी साधू हैं. इनका पहनावा कुछ भी हो सकता है. यह आधे गड़बड़ साधू हैं. इनके अन्दर सब गड़बड़ है पर इनके बाहर सब अच्छा है.
इनके विषय में एक महात्मा प्रवचन देते हुए कह रहे थे सतयुग, त्रेता, द्वापर में जो असुर थे वह कहते थे मुझको पूजो, केवल मेरी बात मानो वही इस जन्म में रजोगुणी टीवी बाबा होकर जन्में हैं. आप खुद निर्णय करें  केमरे के सामने एक्टिंग तो हो सकती है पर सत्संग होना विलक्ष्ण ही कहा जाएगा. 
इनमें कुछ विरले साधुओं  में रज की मात्रा कम और सत अधिक होता है यह अच्छे चिन्तक और विद्वान् तो होते हैं पर उपाधि रुपी व्याधि से ग्रस्त लोकेषणा के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन गवां देते हैं. कोई कोई इस वृत्ति से विमुख हो सतोगुण की और बड़ते हैं. आजकल तो कथावाचक भी राष्ट्रीय संत कहलाने लगे हैं. वेश चाहे गेरुआ हो, सफेद हो या सामान्य गृहस्थ का उपाधि और लोकेषणा छोड़े बिना परम पद नहीं पाया जा सकता है.
वी आई पी आडम्बर छोड़ना होगा. सिंहासन त्यागने होंगे, अपने पीछे कट आउट लगाने और टीवी मोह को छोड़ना होगा. दूर दर्शन विद्वानों आचार्यों, कथावाचक और दार्शनिकों के लिए छोड़ दें. 

तमोगुणी साधू-  यह अधर्म को धर्म मानते हैं. शास्त्रों के विपरीत वचन बोलते हैं. भय दिखाते हैं.अशुभ वेश धारण करते हैं. भूत, प्रेत को पूजनेवाले, अपने को ईश्वर से बड़ा मानने वाले, भक्ष अभक्ष खाने वाले अपनी आत्मा से ही शत्रुता रखते हैं. 

No comments:

Post a Comment

BHAGAVAD-GITA FOR KIDS

    Bhagavad Gita   1.    The Bhagavad Gita is an ancient Hindu scripture that is over 5,000 years old. 2.    It is a dialogue between Lord ...