Thursday, July 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - धर्म- संत, सन्यासी होकर मृत्यु भय है तो फिर क्या पाया? - 94 - बसंत

हिन्दू समाज सदा सहिष्णु और विकासवादी रहा है. यहाँ धर्म को सनातन (जो सदा है) माना जाता है. धर्म सदा सनातन ही होता है अतः धर्म में धर्म गुरु का कोई स्थान नहीं है. भारत में आदि काल से गुरु शिष्य परम्परा रही है और गुरु शिष्य के अज्ञान को दूर करने का प्रयास करते हुए प्रतिबोध धरातल को पुष्ट करने का भरसक प्रयास  शिष्य के भिन्न भिन्न प्रश्नों का उत्तर देते हुए करते थे. इसी कारण अनेक मत मतान्तर प्रचलन में आये और आज भी हिन्दू समाज खुली सोच रखता है इसलिए हर व्यक्ति धर्म के विषय में स्वतंत्र है. वर्तमान में विज्ञान और सुविधा भोगी समाज में बहुत कुछ बदल गया है. लोग धन से सब कुछ खरीदना चाहते हैं, कुछ मूड़ता और गरीबी के मारे हैं. इस मनोवज्ञान को समझकर कुछ साधू एवं विचारक स्वयं अपने को धर्मगुरु घोषित कर ईश्वर से मिलाने का का दावा करते हैं पर धर्मगुरु शब्द ही शास्त्र सम्मत नहीं है. धर्म जो सदा सनातन है में स्वयं धर्म को गुरु माना जाता है. धर्म का कोई गुरु नहीं होता है, न हो सकता है.
धर्म का अर्थ है धारण करने वाला और धारण जिसने इस  सृष्टि  को किया है उसे आत्मा, परमात्मा अथवा ईश्वर कहते हैं. अतः अनादि तत्त्व आत्मा का न कोई गुरु है न कोई शिष्य इसलिए कोई भी धर्म गुरु नहीं हो सकता. हाँ धर्म पर विचार करने वाले, उसे दूसरे को बताने वाले को विचारक, प्रबोधक, दार्शनिक, आचार्य कहना उचित है. धर्म गुरु तो मीडिया का दिया हुआ नाम है. 
आदि शंकर कहते हैं-
न बन्धुर न मित्रं गुरुर नैव शिष्यः 
चिदानंद रूप  शिवोहम  शिवोहम 
अष्टावक्रगीता कहती है-
अयं सोऽहंमयं नाहं विभाग मिति संत्यज 
सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसंकल्प सुखी भव.15-15
यह मैं हूँ यह मैं नहीं हूँ इस विषय को छोड़ दे. सभी आत्मा हैं यह निश्चय कर और कुछ भी न सोच, न संकल्प कर कि मैं गुरु हूँ मैं शिष्य हूँ. संकल्प मुक्त होने पर ही तू सुखी होगा.
आदि शंकर ने धर्म उपलब्धि के सिधान्तों की विकृति रोकने के लिए चार मठों की स्थापना की और आचार्य नियुक्त किये जो शंकर पीठाचार्य कहलाते थे और कालान्तर में शंकराचार्य हो गए. इनको आज अपने अपने सिंहासनो में बैठने से फुरसत मिले तभी तो वह धर्म उपलब्धि के सिधान्तों और सामाजिक विकृति की ओर देखंगे. जब शंकर के उताराधिकारी ही अपने को धर्मगुरु कहलाना पसंद करते हों तो फिर किसका ज्ञान किसका अज्ञान. यही नहीं आज  देश मैं 100 से अधिक स्वयंभू शंकराचार्य हो गए हैं तो कई जगत गुरु, इनमें से कई इतने संवेदनशील हैं कि कोई साधारण व्यक्ति श्रद्धावश इनके पाँव छूने चले जाय तो ऐसे उछलते हैं जैसे बिजली का करंट लग गया हो और यदि माल पानी वाला आसामी आ जाय तो इनकी मोहक दन्त छटा देखने लायक होती है.
तत्त्वज्ञानी योगी तो किसी में भेद नहीं करते पर जो अपने शरीर से ही चिपका है उसकी  गति का अंदाजा आप लगा सकते हैं. बड़े खेद से लिखना पद रहा है कि टीवी, मीडिया और धर्म में वी आई पी आडम्बर ने अच्छे संतों को जन समुदाय से दूर कर दिया है.
जो संत, साधू, जगत गुरु वी आई पी आडम्बर जैसे सिक्यूरिटी, गनर आदि के साथ रहते हों उनको तत्काल स्वांग छोड़कर दुनिया में एक सांसारिक  रूप से वापस हो जाना चाहिए क्योकि वहां अन्दर से सब गड़बड़ है.
सन्यासी अथवा संत हो तो तदनुसार आचरण आवश्यक है. यदि वर्णाश्रम मर्यादा का पालन नहीं कर सकते तो फिर सन्यासी क्यों बने.
संत, सन्यासी होकर मृत्यु भय है तो फिर क्या पाया?
उपाधि और सिंहासन तत्काल त्यागो. एक कुत्ते और ज्ञानी को सम भाव से देखो. सरल होकर सबसे सदा मिलो. मीडिया का लोभ छोडो, वी आई पी आडम्बर छोड़ो. 
जो सम्पति तुमने धर्म के नाम से अर्जित की है उसे जरूरत मंदों में बाँट दो यही नारायण सेवा होगी.
मंदिरों का धन राष्ट्र को समर्पित कर दो. अपनी मोह माया दूर करो तब दूसरों की मोह माया दूर कर पाओगे. अपना उद्धार करो दूसरे का ठेका मत लो. उसे केवल यह बताओ कि तू भी हमारी तरह ही है सदा शुद्ध है. तुझे स्वयं अपना उद्धार करना होगा.
यह जान लो अन्दर से गड़बड़ साधू की गति शोचनीय है. तुम्हारी आत्मा तुम्हारा कल्याण करे.

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