Saturday, May 11, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - अज्ञानी जीव की सोलह कला - 72 - बसंत



प्रश्न- क्या अज्ञान से बद्ध जीवात्मा की  भी सोलह कला होती हैं ?

उत्तर - हाँ .शुक्ल पक्ष की तरह चन्द्रमा के कृष्ण पक्ष की भी  पन्द्रह कला होती है+पूर्णिमा = सोलह कला. परन्तु पूर्णिमा पूर्णता के लिए प्रयुक्त होती है इसलिए सोलहवीं अज्ञान की अवस्था को दक्षिणायन से कहा गया है. श्री भगवान् ने भगवद्गीता में इससे पहले धुंआ, रात्रि दो शब्दों का उल्लेख किया है. इस प्रकार कुल अठारह अवस्था अज्ञान की हैं.

धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ।25=8।

धुंआ, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छह माहों में जो देह त्यागते हैं, वह चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त करके पुनः लौटते हैं अर्थात जिन पुरुषों व योगियों को आत्म ज्ञान नहीं होता उनके अन्दर अज्ञान की स्थिति धुएं, रात्रि, कृष्ण पक्ष एवं दक्षिणायन के छःमाह जैसी तमस युक्त (अज्ञान मय) होती है। वह तमस के कारण अन्ध लोकों अर्थात अज्ञान में भटकते रहते हैं, कालान्तर में उनके सतकर्मों के कारण जो उन्हें चन्द्र ज्योति अर्थात ज्ञान का प्रकाश मिलता है उसके परिणाम स्वरूप इस संसार में पुनः जन्म लेते हैं।
मनुष्य रूपी जीव् की भी 18 अज्ञान की अवस्थाएं-
धुएं, रात्रि की स्थिति के समान जीवात्मा की पहली अज्ञानमय दो स्थितियां हैं जो बड़े बड़े साधकों, विद्वानों और योगभ्रष्टपुरुषों, महान पुरुषों में भी मिलती हैं.
1-- चेतना और संघात - देहासक्ति - जिसके कारण संवेदना महसूस होती है उसे प्रमुख समझते हुए देहासक्ति के कारण अपने वास्तविक चैतन्य स्वरुप को भूल जाना और संसारी हो जाना.
2-धृति- धारण करने का वह अज्ञान जिससे जीव जुड़ा है उसे अपना मानना.

सोलह अज्ञान की कलाएँ
1-शब्द- आवाज के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
2-स्पर्श -के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
3-रूप के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
4-रस के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
5-गंध के प्रति आकर्षण एवं विकर्षण
6-सुख के प्रति आकर्षण
7-दुःख से अशांति
8-राग के प्रति आकर्षण
9-द्वेष - दूसरे के प्रति विपरीत भावना
10-मन - संशयात्मक ज्ञान
11-बुद्धि - भिन्न भिन्न बुद्धि
12-अहंकार- अस्मिता की प्रतीति, मैं और मेरा का बंधन
13-तम- अज्ञान की अधिकता के कारण अधर्म को धर्म मानना
14-रज- अभिमान, दर्प, पाखण्ड
15-सत- संसार और परमार्थ के ज्ञान का अहंकार
16-भय- मृत्यु भय, अनिष्ट भय
मनुष्य इन सभी अज्ञान के आवरणों में रहता है और इनको अच्छा या बुरा मानकर कुछ भी हासिल नहीं होना है. अज्ञान से ज्ञान की ओर का जो साधक हो वह इन सब अच्छे या बुरे का दृष्टा होकर ही  अपने स्वरुप को पा सकता है.उपनिषद के वचन महत्वपूर्ण हैं-
तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा -इस संसार को त्यागते हुए भोगो
ज्ञान का अभिमानी विद्वान् मृत्यु के बाद घोर अंध लोकों में जाता है.

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