Thursday, May 9, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - श्री कृष्ण की सोलह कलाएँ - 71 - बसंत



प्रश्न- श्री कृष्ण की सोलह कला क्या हैं? आत्मा की सोलह कलाओं के बारे में भिन्न भिन्न बातें बतायी गयी हैं जो समझ में नहीं आती. कृपया सरल शब्दों में सोलह कलाओं को बताने का कष्ट करें.
जगह जगह भिन्न भिन्न सोलह कलाओं का वर्णन आता है जैसे  अन्नमया, प्राणमया, मनोमया, विज्ञानमया, आनंदमया, अतिशयिनी, विपरिनाभिमी, संक्रमिनी, प्रभवि,  कुंथिनी,विकासिनी, मर्यदिनी, सन्हालादिनी, आह्लादिनी, परिपूर्ण,स्वरुपवस्थित
इसी प्रकार *चन्द्रमा की सोलह कला : अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री, प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत का उल्लेख है ।
अन्यत्र  श्री, भू, कीर्ति, इला, लीला, कांति, विद्या, विमला, उत्कर्शिनी, ज्ञान, क्रिया, योग, प्रहवि, सत्य, इसना और अनुग्रह तो कहीं प्राण ,श्रधा ,आकाश ,वायु ,तेज ,जल ,पृथ्वी ,इन्द्रिय ,मन ,अन्न ,वीर्य ,तप ,मन्त्र ,कर्म ,लोक और नाम आदि  सोलह कला बतायी गयी हैं, आदि यह सब क्या है.

उत्तर - वास्तव में सोलह कला जो विशुद्ध आत्मा अथवा श्री कृष्ण के लिए प्रयुक्त होती हैं वह बोध अर्थात अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाएं हैं. आपने चांदनी रात देखी होंगी.अमावास्या+ प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की1+15=16 अवस्था हैं.इन सोलह अवस्थाओं से 16कला का चलन हुआ. आपको यह पहले भी स्पष्ट किया जा चका है की दर्शन में प्रकाश शब्द अनुभूत यथार्थ ज्ञान अथवा  बोध के लिए आया है. अब आप विस्तार से बोध प्राप्त योगी की भिन्न भिन्न स्थितियों को जानिये.बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए  प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की15 अवस्थाएं  ली गयी हैं.अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है. भगवदगीता में श्री भगवान् ने
आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न भिन्न मात्रा से बताया है. इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की तीन प्रारंभिक स्थिति हैं.और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला  =16  आत्मा की कलाएं हैं. आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्ष्ण है. इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो जाता है.

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ।24- 8।

श्री भगवान् कहते हैं जो योगी अग्नि,ज्योति, दिन, शुक्ल पक्ष, उत्तरायण, के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरूषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय,ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्ल  पक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है (उनके ज्ञान की तुलना प्रकाश की मात्रा से की है)। ऐसे आत्मवान विश्वात्मा परमात्मा हुए पुरुष, अव्यक्त हो जाते हैं। स्वयं परम ब्रह्म हो जाते हैं।

1-अग्नि- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है.
2-ज्योति- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है. दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है.
3-अहः -दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है
16 कला - 15कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला  = 16
1- बुद्धि निश्चयात्मक हो जाना है.
2-अनेक जन्मो की सुधि आने लगती है.
3- चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है.
4-अहंकार नष्ट हो जाता है.
5-संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते है. स्वरुप बोध होने लगता है.
6-आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है..कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है.
7-वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है.
8-अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है.
9-जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. जल स्थान दे देता है. नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती.
10-पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है. हर समय  देह से सुगंध आने लगती है, नीद, भूख प्यास नहीं लगती.
11-जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है.
12-समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है. जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं.
13-समय पर नियंत्रण हो जाता है. देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है.
14-सर्व व्यापी हो जाता है .एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है. पूर्णता अनुभव करता है. लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है.
16- कारण का भी कारण हो जाता है. यह अव्यक्त अवस्था है.
15 -उत्तरायण कला  -अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण . यहाँ उत्तरायण  के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है.
( जानकार सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है. इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है.) सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएँ होती हैं. यही दिव्यता है.
विस्तार से दी गयी यह जानकारी आपका मार्ग दर्शन करेगी और इस तत्त्व ज्ञान के आधार पर आप किसी भी ज्ञानी, संत, योगी, परमहंस, सिद्ध, बुद्ध, भगवान् को पहचान सकते हैं साथ ही यह जानकारी साधक के ईश्वरी ज्ञान में अपनी स्थिति  जानने में भी सहायक होगी.

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