प्रश्न - सारा संसार अहंकार को साधना मार्ग में ही नहीं जीवन में भी बुरा समझता है. कबीर कहते हैं - 'जब मैं था तब हरि नहीं ' और आप कहते हैं अहंकार से भी योग हो सकता है. आप अहंकार योग की वकालत करते हैं. यह कैसे संभव है?
उत्तर- अहँकार आत्मा से प्रकट होता है, परम बोधमय आत्मा को तमोगुणी आवरण शक्ति जब पूर्णतया ढक लेती है और आत्मा के ढक जाने से आत्म तेज से व्याप्त यह अहँकार स्वयं आच्छादित हो जाता है. आत्मतत्व के छिप जाने से जीव शरीर को अज्ञान से मैं हूँ ऐसा मानाने लगता है. परन्तु जो इसको जान लेता है इसके द्वारा स्वरुप अनुभूति को प्राप्त होता है.
यह सारी दुनियां अहँकारी है. एक दूसरे को अहँकारी समझता है और मजे की बात यह है कि किसी को अहँकारी कह दिया जाय तो वह तिलमिला उठता है.
यह अहँकार आत्मा के तेज से उत्पन्न होता है. इसी के कारण मैं कर्ता हूँ, मैं भोगने वाला हूँ इसका अभिमान होता है. यह हमारी बुद्धि में,मन में, इन्द्रियों में स्थित होकर सदा मैं हूँ का अभिमान करता है. यही सुखी होता है यही दुखी होता है.यह बहुत ही निपुण है, पुराणों में इसे दक्ष प्रजापति कहा है, जिसका बध परम बुद्धि शिव -शंकर द्वारा हुआ फिर भी यह अमर है. अमर होने के कारण यह सभी जीवों में व्याप्त रहता है.
अतः अहँकार से दुश्मनी छोड़ दोस्ती कर लें. इसको जाने, इसको पहचाने क्योकि यह आत्मतत्व के सबसे नजदीक है. इसके द्वारा आत्मा को जाने. इसे योग बना लें.अहँकार योग सबसे सरल सबसे व्यवहारिक है.
मैं कौन हूँ का निरन्तर चिन्तन अहँकार को परम पूर्ण शुद्ध ज्ञान में बदल देगा और स्व अर्थात आत्म अनुभूति उपलब्ध होगी.
अहंकार तीन प्रकार का होता है.
1- मैं पूर्ण विशुद्ध ज्ञान हूँ , मैं सत चित आनंद स्वरुप शुद्ध चेतन्य परमात्मा हूँ यह समझते हुए इसे व्यवहार मैं उतारने का प्रयत्न करता है, जो निरंतर चिंतन करता है की मैं एक और अकेला हूँ मेरे अलावा दूसरा कोई नहीं है, मैं ही विश्व और विश्वात्मा हूँ. यह अहंकार का शुद्ध स्वरुप है.इसे शुद्ध अहंकार भी कहते हैं. यह मोक्ष का कारण है.साधक को यह अहंकार करना चाहिए.
2-मैं अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी अति सूक्ष्म जीवात्मा हूँ जो इस देह मैं स्थित है.मैं बिना शरीर का इस शरीर से भिन्न हूँ. मैं अधिदेव रूप मैं इस शरीर मैं स्थित हूँ. मेरे कारण ही यह देह है. यह दूसरी श्रेणी का अहंकार है. यह भी शुभ अहंकार है और आत्म बोध का कारण बनता है.
3- मैं आँख, नाक कान, हाथ, पैर वाला काला, गोरा शरीर हूँ, मैं किसी का पुत्र हूँ, किसी का पिता हूँ, मैं डाक्टर, प्रोफेसर, अधिकारी, मंत्री, राजा, सन्यासी, धनी, निर्धन, गुरु, शिष्य हूँ. यह मैं मेरा करता रहता है. यह सब मिथ्या अहंकार है. इसमें कुछ अहंकार निम्न हैं, कुछ मध्यम निम्न और कुछ अधम निम्न हैं. यह अस्मिता की प्रतीति ही बंधन और दुःख का कारण है और इन मैं फँस कर आत्मा अपने स्वरुप को भूल जाता है. संसार इसी अहंकार से ग्रस्त रहता है.
उत्तर- अहँकार आत्मा से प्रकट होता है, परम बोधमय आत्मा को तमोगुणी आवरण शक्ति जब पूर्णतया ढक लेती है और आत्मा के ढक जाने से आत्म तेज से व्याप्त यह अहँकार स्वयं आच्छादित हो जाता है. आत्मतत्व के छिप जाने से जीव शरीर को अज्ञान से मैं हूँ ऐसा मानाने लगता है. परन्तु जो इसको जान लेता है इसके द्वारा स्वरुप अनुभूति को प्राप्त होता है.
यह सारी दुनियां अहँकारी है. एक दूसरे को अहँकारी समझता है और मजे की बात यह है कि किसी को अहँकारी कह दिया जाय तो वह तिलमिला उठता है.
यह अहँकार आत्मा के तेज से उत्पन्न होता है. इसी के कारण मैं कर्ता हूँ, मैं भोगने वाला हूँ इसका अभिमान होता है. यह हमारी बुद्धि में,मन में, इन्द्रियों में स्थित होकर सदा मैं हूँ का अभिमान करता है. यही सुखी होता है यही दुखी होता है.यह बहुत ही निपुण है, पुराणों में इसे दक्ष प्रजापति कहा है, जिसका बध परम बुद्धि शिव -शंकर द्वारा हुआ फिर भी यह अमर है. अमर होने के कारण यह सभी जीवों में व्याप्त रहता है.
अतः अहँकार से दुश्मनी छोड़ दोस्ती कर लें. इसको जाने, इसको पहचाने क्योकि यह आत्मतत्व के सबसे नजदीक है. इसके द्वारा आत्मा को जाने. इसे योग बना लें.अहँकार योग सबसे सरल सबसे व्यवहारिक है.
मैं कौन हूँ का निरन्तर चिन्तन अहँकार को परम पूर्ण शुद्ध ज्ञान में बदल देगा और स्व अर्थात आत्म अनुभूति उपलब्ध होगी.
अहंकार तीन प्रकार का होता है.
1- मैं पूर्ण विशुद्ध ज्ञान हूँ , मैं सत चित आनंद स्वरुप शुद्ध चेतन्य परमात्मा हूँ यह समझते हुए इसे व्यवहार मैं उतारने का प्रयत्न करता है, जो निरंतर चिंतन करता है की मैं एक और अकेला हूँ मेरे अलावा दूसरा कोई नहीं है, मैं ही विश्व और विश्वात्मा हूँ. यह अहंकार का शुद्ध स्वरुप है.इसे शुद्ध अहंकार भी कहते हैं. यह मोक्ष का कारण है.साधक को यह अहंकार करना चाहिए.
2-मैं अत्यंत सूक्ष्म, परमाणु से भी अति सूक्ष्म जीवात्मा हूँ जो इस देह मैं स्थित है.मैं बिना शरीर का इस शरीर से भिन्न हूँ. मैं अधिदेव रूप मैं इस शरीर मैं स्थित हूँ. मेरे कारण ही यह देह है. यह दूसरी श्रेणी का अहंकार है. यह भी शुभ अहंकार है और आत्म बोध का कारण बनता है.
3- मैं आँख, नाक कान, हाथ, पैर वाला काला, गोरा शरीर हूँ, मैं किसी का पुत्र हूँ, किसी का पिता हूँ, मैं डाक्टर, प्रोफेसर, अधिकारी, मंत्री, राजा, सन्यासी, धनी, निर्धन, गुरु, शिष्य हूँ. यह मैं मेरा करता रहता है. यह सब मिथ्या अहंकार है. इसमें कुछ अहंकार निम्न हैं, कुछ मध्यम निम्न और कुछ अधम निम्न हैं. यह अस्मिता की प्रतीति ही बंधन और दुःख का कारण है और इन मैं फँस कर आत्मा अपने स्वरुप को भूल जाता है. संसार इसी अहंकार से ग्रस्त रहता है.
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