Friday, May 17, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - भक्ति योग - 75 - बसंत



प्रश्न-  परमेश्वर के अनन्य प्रेमी जो उनको हृदय में धारण कर उनसे जुड़े रहते हैं। उन में मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार स्थापित कर अनन्य प्रेम करते हैं, जिनके समस्त कर्म परमेश्वर के लिए होते हैं अथवा जो अविनाशी अव्यक्त परम परमात्मा का अपनी आत्मा में सदा ध्यान चिन्तन मनन करते हैं, उन दोनों भक्तों में कौन भक्त श्रेष्ठ है।

उत्तर- इस तत्त्व ज्ञान को भगवद्गीता में श्री भगवान ने विस्तार पूर्वक समझाया है. श्री भगवान ने बताया  कि जो मन को सदा आत्मा में लगाकर निरन्तर आत्मा से जुडे़ रहते हैं अर्थात व्यवहार में परमेश्वर का स्मरण करते हैं; परम श्रद्धा से युक्त होकर जो निरन्तर आत्म रुपी परमेश्वर का  भजन करते हैं, वह योगी परम उत्तम हैं। जो भक्त (ज्ञानी) इन्द्रियों को अष्टांग योग विधि द्वारा अथवा सभी बन्ध यथा मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि या अन्य प्रकार से भली भांति वश में करके सर्वव्यापी परमात्मा, जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता, सदा शुद्ध परम शान्त अवर्णनीय अवस्था में सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी आत्मतत्त्व रुपी परमात्मा को अनुभूत करने वाले हैं, जो सब प्राणियों में सम भाव रखते हैं; स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा हुए, परमात्मा को प्राप्त होते हैं।  उस अव्यक्त जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के द्वारा नहीं जाना जा सकता जो महत् से भी महत् है अर्थात अपरा परा प्रकृति का भी आदि कारण हैं, के साधन और अनुभूति में मनुष्यों को देह बुद्धि के कारण अत्याधिक परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव की देह आसक्ति अत्याधिक प्रबल है, यह छूटे  नहीं छूटती। अतः अव्यक्त की उपासना अत्याधिक कठिन है। इस में चलना कुल्हाड़ी की धार पर चलना है।
परन्तु जो भक्त सदा स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करते हैं, अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए कर्म और उनके फलों को परमात्मा को अर्पित कर देते हैं, उनका उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना, व्यवसाय आदि सभी कर्म स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा लिए होते हैं। जो न डिगने वाले अर्थात एक निष्ठ रूप से आत्मा से जुड़े रहते हैं, आत्म ध्यान करते हैं, सदा आत्मा के समीप रहते हैं, स्मरण करते हैं, ऊँ स्वरुप आत्मा का ही ध्यान करते हैं।
ईश्वर की सगुण-निर्गुण उपासना को अच्छी प्रकार समझना होगा। सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। दूसरे रूप में साक्षी भाव से अपने शरीर को, मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियों व उनके कार्यों को देखना सगुण उपासना है। चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना। अपने में आत्मरूप परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना। जगत (सगुण) में ब्रह्म देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना “घट-घट रमता राम रमैया“ मन वाणी कर्म से महसूस करना सगुण भक्ति है। यही व्यवहार में स्मरण करना है। अव्यक्त जिसके बारे में न कुछ कहा जा सकता, न समझा जा सकता, न जाना जा सकता, वह अव्यक्त परब्रह्म एक स्थिति है, परमगति है। वहाँ स्मरण भी नहीं रहता, निराकार स्थिति भी बिना सहारे के हो जाती है। उसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है। वहाँ शून्य समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है, अनहद् भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है; केवल अव्यक्त परब्रह्म परमतत्व ही स्थित रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों को मन सहित अष्टांग योग विधि द्वारा विषयों की ओर जाने से रोक कर अथवा सभी प्रकार के बन्ध सिद्ध करके जैसे मूल बन्ध, उड्यान बन्ध, जालन्धर बन्ध आदि लगाकर कुण्डली जागरण द्वारा अथवा श्री भगवान के उपदेशानुसार शुद्ध स्थान में आसन जो न अधिक ऊँचा हो न नीचा लगाकर, सिर, गरदन, शरीर को एक सीध में करके नासिका के अग्र भाग को देखता हुआ तथा अन्य दिशाओं को न देखकर, प्राण वायु को रोककर, प्रशान्त मन होकर, परमात्मा के नाम ऊँ को प्राणों के साथ भौहों के मध्य में स्थापित करे तथा निरन्तर सतत् अभ्यास और वैराग्य से सिद्ध हुआ परम ज्ञानी अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होता है । वीतरागी पुरुष इन्द्रियों के व्यवहार से उदासीन हो विचरता है जबकि सगुण उपासक सभी कार्योँ को परमात्मा को अर्पण करते हुए सदा उसका स्मरण करता है।
आत्म स्वरूप विश्वात्मा में  चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्त जो हैं, वह बोध प्राप्त कर मृत्यु रूपी संसार से परे हो जाते हैं। जब भी कोई परमेश्वर  में अपना चित्त अर्पण करता है उसमें  स्थित हुआ परमेश्वर  विराट होता जाता है और एक दिन सम्पूर्ण चित्त को आत्मा अपने में समाहित कर लेता हूँ।श्री भगवान् के वचन हैं मैं आत्म स्वरूप विश्वात्मा अपने भक्त का योगक्षेम वहन करता हूँ अतः भक्त को बोध अवश्य होता है।
आत्म स्वरूप विश्वात्मा में मन लगा, बुद्धि लगा। जीव व इन्द्रियों के बीच में जो ज्ञान है वह मन कहलाता है। आत्मा और जीव के बीच जो ज्ञान है वह बुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में संशयात्मक ज्ञान मन है, निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है। अतः मन और बुद्धि को आत्मा में लगा। मन की दिशा बाहर की जगह आत्मा की ओर मोड़ दे तथा बुद्धि की दिशा भी जीव से आत्मा की ओर मोड़। इस प्रकार मन बुद्धि आत्म स्वरूप विश्वात्मा में लगाने से आत्मरूप परमात्मा में स्थित होकर उस अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि मन को आत्म स्वरूप विश्वात्मा में लगाने में असमर्थ है और यह समझते हो कि हर समय मन आत्म चिन्तन में नहीं लगाया जा सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रहा जा सकता, ध्यान नहीं किया जा सकता आदि तो  मन लगाने का मुझमें अवश्य अभ्यास करो इससे मन की बाहर की दिशा रूकने लगेगी। उसकी आदत बदल जायेगी। वह विषयों से छूट कर आत्मा की ओर जाने लगेगा और धीरे-धीरे अभ्यास से इसका भटकना रुक जायेगा और यह आत्मा में विलीन हो जायेगा।
यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ हो, मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर भटकने से रोकने में असमर्थ हो, ध्यान, साधन आदि नहीं कर सकते हो , साक्षी भाव में स्थित नहीं रह सकते हो, अहंकार नहीं छोड़ सकते हो  तो भी आत्म योग के लिए सरल उपाय बताता हूँ। तू अपने स्वाभाविक धर्म के आधार पर अर्थात जिस कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है तथा तुम्हारे जन्मगत जो स्वाभाविक कर्म हैं उनको सरलता पूर्वक करो और सभी कर्म आत्म स्वरूप विश्वात्मा को अर्पण कर दो। तुम्हारा उठना-बैठना, खाना-पीना, व्यवसाय आत्म स्वरूप विश्वात्मा के प्रति हो। सब कर्म आत्म स्वरूप विश्वात्मा को अर्पित करते हुए तुम्हारी मन, बुद्धि परमेश्वर में  एक निष्ठ हो जायेगी परिणामस्वरूप तुम  परम स्थिति को प्राप्त होगे.
यदि आत्म स्वरूप विश्वात्मा के निमित्त कर्म भी तुमसे  नहीं हो सकते अथवा तुम अपने कर्म परमेश्वर को अर्पित नहीं कर सकते हो, तो यत्नशील होकर सभी कर्मों के फल परमेश्वर को दे दो । जब तुम कोई काम करो तो उस समय आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करो तथा जब वह कर्म समाप्त हो तो भी आत्म स्वरूप विश्वात्मा का चिन्तन करो और उसका जो भी परिणाम हो उसे  परमात्मा की इच्छा समझो । धीरे-धीरे इस अभ्यास से तुम निष्काम होने लगोगे और तुम्हारा योग सिद्ध हो जायेगा।
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से बुद्धि द्वारा परमेश्वर को जानना व जुड़ना श्रेष्ठ है, तत्पश्चात उसका चिन्तन, मनन, ध्यान, श्रेष्ठ है, उससे भी अधिक सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए अथवा इन्द्रिय दमन कर अनासक्त होकर निष्काम कर्म श्रेष्ठ है। निष्काम कर्म होने से चित्त की उद्विग्नता जाती रहती है और स्वाभाविक रूप से शान्ति प्राप्त होती है।
जो सभी प्राणियों से द्वेष भाव रहित हैं, सबका मित्र है अर्थात अपना पराया का भाव नहीं है, स्वाभाविक करुणा जिसमें है, जो ममता रहित है अर्थात संसार की मोह माया से उदासीन है, अहंकार रहित है और सुख दुख में समान है, क्षमावान है, जो अपने में सदा संतुष्ट रहता है जिसने यत्न करके मन इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जिसका निश्चय परमात्मा के प्रति अडिग है, जिसने अपने मन बुद्धि को आत्म स्वरूप विश्वात्मा में सदा सदा के लिए लगा दिया है, इस प्रकार निज स्वरूप को खोजने व जानने वाला  परमेश्वर को परम प्रिय है। वह परमात्मा का प्रिय  परम गति का अधिकारी है।
जिससे संसार को त्रास नहीं होता और जो संसार से उद्विग्न नहीं होता अर्थात अच्छे-बुरे, सरल-दुष्ट आदि सभी के प्रति कल्याण की भावना रखता है ऐसा योगी जो किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति से प्रसन्न नहीं होता, दूसरे की उन्नति से जिसे जलन नहीं होती, जिसे किसी भी प्राणी से भय और त्रास नहीं है, ऐसा आत्म स्वरूप में रमण करने वाला परमेश्वर को अति प्रिय है।
जिसमें कामना का अभाव हो गया हो वह सदा आत्म तृप्त रहता है, वह महात्मा परम पवित्र होता है, उसका सानिध्य पवित्र होता है। सभी के लिए सदा समभाव रखने वाला पक्षपात रहित होता है। उसे लोक परलोक के कष्ट नहीं व्यापते हैं, क्योंकि वह निष्काम है, उदासीन है। सभी कर्मों को जिसने प्रभु अर्पण कर दिया है, इस प्रकार जो कर्मों के प्रारम्भ का त्यागी है वह स्वरूप स्थित महात्मा परमेश्वर को  परम प्रिय है।
जो आत्मरत आत्मानन्द से अधिक कुछ नहीं मानता अतः संसार की कोई भी वस्तु उसके हर्ष का कारण नहीं होती, न किसी से द्वेष करता है क्योंकि सदा मानता है कि मैं और वह एक ही हैं। जिसे न कोई चिन्ता है, जिसकी न कोई कामना है, जिसने अपने सभी कर्म प्रभु अर्पण कर दिए हैं, ऐसा निष्काम कर्म योगी जो स्वरूप स्थित है वह परमेश्वर को अत्यन्त प्रिय है।
अद्वैत महात्मा जो सदा ब्रह्मानन्द में स्थित हैं, उनके लिए शत्रु और मित्र समान हो जाते हैं। सरदी-गरमी, सुख-दुःख की ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता अतः सभी परिस्थितियाँ जिसके लिए समान हैं, जिसकी आसक्ति का बीज नष्ट हो गया है वह परमेश्वर को अति प्रिय है।
जिस समत्व योगी के लिए निन्दा और संस्तुति एक समान है अर्थात निन्दा होने पर जिसे क्रोध नहीं आता और प्रशंसा होने पर प्रसन्न नहीं होता, जो वासना रहित मौन में स्थित है। जिस भांति भी शरीर निर्वाह हो, सभी स्थिति में संतुष्ट है। जो किसी स्थान विशेष से लगाव नही रखता अर्थात घर में रहते हुए घर को सराय समझ कर रहता है। बुद्धि जिसकी सूक्ष्म होकर निश्चित हो गयी है ऐसा स्वरूप स्थित महात्मा परमेश्वर को अति प्रिय है।
जो श्रद्धा युक्त पुरुष परमेश्वर में अपना मन बुद्धि स्थापित करके इस परम आत्म ज्ञान का सेवन करते हैं, उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है और आत्म स्थित ऐसे पुरुष परमेश्वर को अति प्रिय हैं।

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