Wednesday, May 29, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - प्रार्थना - 80- बसंत

प्रश्न- क्या प्रार्थना कबूल होती है?
उत्तर- हाँ प्रार्थना कबूल होती है.भिन्न भिन्न लोग अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य  आदि को को पूजते हैं  देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य आदि  सभी अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार आपकी प्रार्थना पूरी करते हैं.

प्रश्न- प्रार्थना के पूरा होने का क्या सिद्धांत है?
उत्तर- संसार के सभी आस्तिक प्रार्थना को महत्व देते हैं और प्रार्थना पूरी भी होती है. श्री  भगवान भगवदगीता में कहते हैं जो मनुष्य जिस प्रकार मुझको जिस रूप में जिस विधि से भजता है, प्रार्थना करता है मैं उसी विधि से उसी प्रकार उसको भजता हूँ, उसकी प्रार्थना कबूल करता हूँ.
आप कैसे ही किसी प्रकार चलें सब ईश्वर के ही मार्ग हैं. आप देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य  जिस किसी को पूजते हैं आपकी श्रृद्धा के अनुसार और उस  देव, दानव, भूत, प्रेत, मनुष्य द्वारा अपनी अपनी सामर्थ के अनुसार उस प्रार्थना को कबूल किया जाता है.
एक आत्मतत्त्व जो सभी जड़ चेतन में व्याप्त है वह आपकी प्रार्थना आपके अन्दर स्थित हुआ सुनता है और पूरा करता है. चूंकि अदृश्य आत्मतत्त्व जो आपके अन्दर है उसे आप महसूस नहीं करते हैं इसलिए मानते हैं किसी अन्य ने आपकी प्रार्थना पूरी की.
श्री भगवान जो आपकी आत्मा हैं उन्होंने भगवद्गीता में प्रार्थना के पूरा होने के सिद्धांत को विस्तार से समझाया है. भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
 येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ।23-09।
हे अर्जुन जो अन्य जन दूसरे देवताओं का पूजन करते हैं वे भी मुझको ही पूजते हैं क्योंकि मैं ही सर्व व्यापक हूँ तथा सभी देवी देवता मुझ परमेश्वर की विभूति हैं। उनका यह पूजन अज्ञान पूर्वक है अर्थात वह मुझ आत्मरूप को नहीं पहचानते अतः इधर उधर भटकते हैं।
इसी प्रकार अध्याय सात में कहते हैं -
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ।20।
संसार में भिन्न भिन्न कामनाओं को लिए मनुष्य अनेक भोग और इच्छाओं के वशीभूत हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है, अपने अपने स्वभाव के वशी भूत हो भिन्न भिन्न नियमों का पालन करते हुए अर्थात पूजा विधि, पूजा सामग्री आदि से देवी देवताओं का भजन पूजन, प्रार्थना करते हैं।
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌ ।21।
जो जो सकामी भक्त जिस जिस देवी देवता के स्वरूप का श्रद्धा से भजन पूजन प्रार्थना करना चाहता है उस उस भक्त की श्रद्धा मैं उसी देवी देवता के प्रति स्थिर कर देता हूँ।
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान्‌ ।22।
वह मनुष्य  श्रद्धा से युक्त होकर जिस देवी देवता का भजन पूजन, प्रार्थना करते हैं और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए इच्छित भोगों को प्राप्त करते हैं अर्थात जिस फल की इच्छा वे रखते हैं, मेरे बनाये नियमानुसार उन्हें वह फल उस देव पूजन से प्राप्त होता
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्‌ ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।23।
परन्तु यह सभी मनुष्य अल्प बुद्धि के हैं तथा इनको देव पूजन से मिलने वाला फल भी नाशवान है। क्योंकि संसार की सभी वस्तु मरण धर्मा हैं। ये देव पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं परन्तु जो मेरे भक्त हैं उन्हें मेरी पूजा और प्रार्थना का फल मैं अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त होता है।

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