Wednesday, April 17, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - ज्ञान - 58- बसंत


प्रश्न- ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाय?

उत्तर- निरंतर चिंतन करना होगा कि तू शरीर नहीं है. तू न शरीर का कोई अंग है .शरीर का कोई तत्त्व भी तू नहीं है  तू मन, बुद्धि, अहंकार भी नहीं है.
तू न ब्राह्मण है, तू न शूद्र है, तेरी कोई जाति नहीं है. तू न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई आदि है. तू न बुरा है न अच्छा है. तू न देवता है न दानव है.
तू न गुरु है तू न शिष्य है. तेरा कोई न मित्र है न कोई शत्रु है.

तू तो इन सबका साक्षी है सबका दृष्टा है.  निरंतर प्रत्येक व्यवहार में साक्षी हो जा.
निरंतर चिंतन कर ज्ञान मेरा स्वरूप है.
सदा अपने को प्रणाम कर.
सदा ध्यान रख तेरा कोई नाश नहीं कर सकता है.
निरंतर यह विचारने से तुझे ज्ञान प्राप्त हो जाएगा.
एक बात निश्चय रूप से जान लीजिये की आत्मा आत्मा कहने से काम नहीं चलेगा, आत्मा के स्वभाव को अपनाना होगा. साक्षी  होना होगा, दृष्टा होना होगा.
भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं -

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।

इस देह में स्थिति जीव आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपद्रष्टा जाना जाता है.

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9।

इसी प्रकार भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं -
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है। वह सदा साक्षी रहता है, दृष्टा रहता है.
वेदों में अनेक स्थानों में स्वास नियम्य आया है जो केवल साक्षी होने पर ही संभव है.
इस पद्धित को महात्मा बुद्ध ने भी अपनाया वर्त्तमान  में यह विपश्यना के नाम से भी प्रचारित हो रही है.

मुंडकोपनिषद में साक्षी भाव को बड़े सुन्दर ढंग से सुस्पष्ट किया है.

तयोरन्यः पिप्पलं स्वादात्त्य नश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.

एक वृक्ष में दो सुंदर पक्षी रहते हैं उनमें एक (जीव) मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (साक्षी)  रहता है.
तुम्हारे पास केवल दो रास्ते हैं. या तो कर्ता भोक्ता बन कर सुख दुःख भोगो अथवा  दृष्टा या साक्षी होकर बोध को प्राप्त हो.
यदि तुम अपने और सबके दृष्टा हो तो सदा मुक्त हो पर तुम केवल दूसरों के दृष्टा हो इसलिए सीमा में बंधे हो. अपने दृष्टा या साक्षी होने पर मैं एक विशुद्ध बोध हूँ का भाव स्वयं विकसित हो जाएगा.
यही भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, वेदान्त का तत्त्व ज्ञान है. श्री कृष्ण कहते हैं - व्यवहार में मेरा स्मरण कर.

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