Monday, April 22, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - अमृत - 62- बसंत



प्रश्न - अमृत के विषय में आपका क्या कहना है? क्या अमृत होता है?

उत्तर- अमृत का अर्थ है नहीं मरना.
अ का अर्थ है नहीं मृत का अर्थ है मुर्दा इसलिए अमृत वह है जिसे पाकर प्राणी न मरे.
पुराण में कथा है सागर मंथन से अमृत कुम्भ निकला जिसने उसे पीया वह अमर हो गया. इस प्रतीकात्मक कहानी को लेकर अमृत के विषय में यह धारणा बन गयी कि अमृत कोई द्रव्य है जिसे पीकर अमरत्व पाया जा सकता है.
भगवद गीता, वेदान्त पूर्णतया स्पष्ट करता है कि विशुद्ध ज्ञान ही अमृत है जिसे पाकर अमरत्व प्राप्त होता है अर्थात आत्म तत्त्व अथवा बोध ही अमृत है. आत्म तत्त्व को पाकर मनुष्य अपना नियंता हो जाता है. वह देह से बाहर भीतर अपने को देखता है.अब आप स्वयं विचार कीजिये कि जो अपनी मृत्यु का भी दृष्टा है, जो देह के बाहर है उसे कैसे मारा जा सकता है. यह अमृत आपके अन्दर है
तेत्तिरीय उपनिषद के चतुर्थ अनुवाक में ऋषि कहते हैं
अमृतस्य देव धारणो भूयासम
अमृतमय परमात्मा को धारण करने वाला बनूँ
इसी प्रकार-
रसो वै सः२-७- तैत्तिरीयोपनिषद्   वह ज्ञान रूप परमात्मा सभी रसो का परम आनंद अमृत है..

रस को पाकर जीव यह
होता परमानन्द
आनंद आकाश नहिं होत यदि
को जीवे कोऊ रक्ष प्राण
जो सबको आनंद दे
रस स्वरूप आनन्द.२-७- तैत्तिरीयोपनिषद्

विज्ञानमानन्दं ब्रह्म.३-९-२८-वृह उपनिषद

इसी प्रकार श्री भगवान् भगवद्गीता में कहते हैं-

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।१५-2।भगवद्गीता

अमृत तत्व पाता वही सुख दुख रहे समान
विषय न जेहि व्याकुल करे, पुरुष श्रेष्ठ तू जान।। 15-2।।बसंतेश्वरी

जो पुरुष विषयों के आधीन नहीं होता है, सुख और दुःख में जो समान रहता है वह अमृत तत्व के योग्य होता है। उसका चित्त पूर्णतया शान्त हो जाता है। यही ज्ञान अमृत का सागर है।

कबीर ने तो जगह जगह इस ज्ञान रुपी अमृत का उल्लेख किया है.  भगवद्गीता और उपनिषद के तत्त्व ज्ञान को अपनाकर महात्मा कबीर ने ज्ञानामृत को प्राप्त किया था.यथार्थ में यही अमृत चखना है.

जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे
त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥
तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥
गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा।
तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥
अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा।
तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥
बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता।
यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥

अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नालि रस पीजै
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥

आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत भोगी
ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥
त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥
त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥

प्रयाग हरिद्वार, उज्जैन और नासिक का कुम्भ ज्ञानामृत की प्राप्ति के लिए संतों के विचार विमर्श का आयोजन था जो अब मेले में बदल गया है.
संक्षेप में तुम्हारे अस्तित्व का ज्ञान जो तुम्हारे अन्दर है की अनुभूति ही अमृत है.

     










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