Saturday, April 27, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 66 -बसंत



प्रश्न- कर्म क्या हैं?
उत्तर- अव्यक्त आत्मा में बिना किसी कर्ता के प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ने वाले आकार, उत्पन्न करने का जो कार्य चलता जा  रहा है उसे कर्म कहते हैं. इसी प्रकार जो प्राणियों के भावों को उत्पन्न करे वह कर्म है.
भगवद्गीता कहती है-
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।3-8।

प्रश्न- अधिभूत क्या है?
उत्तर- जितने भी नाशवान पदार्थ हैं वह अधिभूत हैं जैसे पृथ्वी,जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और  अहंकार.

प्रश्न- अधिदेव क्या है?
उत्तर- जीवात्मा अधिदेव  है

प्रश्न- जीवात्मा क्या है?
उत्तर- आत्मा का कर्ता, भोक्ता भाव उसे सीमित कर देता है और असीम आत्मा सीमा बद्ध हो जाता है तब वह जीवात्मा कहलाता है.

प्रश्न- अधियज्ञ क्या है?
उत्तर- विशुद्ध आत्मा जिसे परमात्मा कहते हैं अधियज्ञ है. शैव इसे ही पूर्ण शुद्धावस्था में शिव कहते हैं. वैष्णव इसे  पूर्ण शुद्धावस्था में विष्णु कहते हैं.शाक्त इस अवस्था को दुर्गा कहते हैं.
विशेष- श्री कृष्ण, श्री राम विशुद्ध आत्मा का व्यक्त स्वरुप हैं. यह पूर्ण  विशुद्ध ज्ञान की व्यक्त अवस्था है. व्यक्त अव्यक्त दोनों जिसमें समाहित हैं.

प्रश्न- अध्यात्म क्या है?
ब्रह्म स्वभाव अध्यात्म नाम से जाना जाता है.  ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति ही उसका स्वभाव है.    ब्रह्म का शुद्ध एक अंश ब्रह्मा जी हैं. इस एक अंश परा और अपरा प्रकृति की भिन्न भिन्न मात्रा का मिश्रण सृष्टि है. भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं-
स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।3-8

प्रश्न- क्षेत्र क्या है?
उत्तर- यह शरीर क्षेत्र है.

प्रश्न- क्षेत्रज्ञ क्या है?
उत्तर- जो यह जानता है कि वह इस शरीर का स्वामी है. शरीर का स्वामी जीवात्मा कहा गया है.

प्रश्न- यह क्षेत्र जीवन युक्त और क्रियाशील कैसे होता है?
उत्तर- पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त त्रिगुणात्मक प्रकृति, इन्द्रियां (कान, नाक, आंख, मुख, त्वचा, हाथ, पांव, गुदा, लिंग, वाक), मन, इन्द्रियों की पाचं तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध), इन्द्रियों के विषय (इच्छा द्वेष, सुख-दुःख, जो अनेक प्रकार के गुण दोष उत्पन्न कर देते हैं), स्थूल देह का पिण्ड और चेतना (जो महसूस कराती है, इसको संवेदना भी कह सकते हैं; आत्मा की इस शरीर में जो सत्ता है उसके परिणामस्वरूप देह की महसूस करने की शक्ति; जैसे जहाँ अग्नि होती है वहाँ उसकी गर्मी, उसी प्रकार जहाँ आत्मा है वहाँ चैतन्य है। जैसे सूर्य और उसकी आभा है इसी प्रकार आत्मा और आत्मा की सत्ता का प्रभाव यह देह चेतना है। यह सम्पूर्ण शरीर में बाल से लेकर नाखून तक जाग्रत रहती है)। धृति (पंच भूतों की आपस की मित्रता ही धैर्य है)। जैसे जल और मिट्टी का बैर है पर वह इस शरीर में मित्रवत सम्बन्ध बनाते हुए रहते हैं इस प्रकार जल और अग्नि, वायु और अग्नि आदि। जब यह 36 तत्व एक साथ मिल जाते हैं तो क्षेत्र का जन्म होता है।
श्री भगवान सुस्पष्ट करते हैं - “यथा प्रकाशयत्येकः कृत्सनं लोकमिमं रविः क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्सनं प्रकाशयति भारतः” जिस प्रकार एक सूर्य इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है उसी प्रकार एक आत्मा सम्पूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित अर्थात ज्ञान और क्रिया शक्ति से युक्त कर देता है। यह 36 तत्व पुरुष (क्षेत्रज्ञ) के कारण एक स्थान में इकट्ठा हो जाते हैं और क्रियाशील हो जाते हैं.

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