Friday, April 5, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - बोध - 56 - बसंत



प्रश्न- ब्रह्म उपलब्धि अथवा आत्म बोध कृपा साध्य है अथवा कर्म साध्य?

उत्तर- इसमें कोइ शंका नहीं है कि ईश्वर बिना किसी हेतु के कृपा करते हैं. हमारा अस्तित्व ही उनकी कृपा है. यदि गहराई से देखें तो ईश्वर ही जीव रूप में खेल खेल रहा है. एक बाप है एक बेटा. दोनों एक से हैं  पर बेटे को सर्वगुण सम्पन्न बाप तो कहा नहीं जा सकता और बेटे को सर्वगुण सम्पन्न बाप की तरह बनने में वर्षों  लग जाते हैं. यही स्थिति जीव और ब्रह्म की है. बेटा उम्र के साथ बड़ा होकर निर्धारित नियमों को अपनाकर ही सर्वगुण सम्पन्न बाप बन जाता है उसी प्रकार जीव भी निर्धारित नियमों को अपनाकर ईश्वर हो जाता है. क्या कृपा से सर्वगुण सम्पन्नता आ सकती है? यदि हाँ तो ईश्वर कृपा साध्य है यदि नहीं तो ईश्वर कर्म अथवा नियम साध्य है.  
स्वयं ईश्वर ने कर्म का सिद्धांत बनाया है. जब उसने स्वयं अपने लिए और अपनी सृष्टि के लिए कर्म का सिद्धांत बनाया है और इस कर्म सिद्धांत के कारण अनादि काल से साधक जोगी जंगम बने हुए योग, तप कर्म करते हैं  फिर एक साधारण आदमी कैसे बिना कुछ किये केवल कृपा से ईश्वर को पा सकता है.
साधन में असफल और लोक पूजा के लालच के कारण तथाकथित गुरु  बनकर जन समुदाय को मात्र दिग भ्रमित कर रहे हैं. लोगों के अंधविश्वास और भय को भुना रहे हैं. लोग पाद वंदन कर रहे हैं, भेंट पूजा दे रहे हैं और आप हाथ और मुंह से कृपा करते हैं. यह गुरु बड़े बुद्धिमान और चालाक हैं यह ईश कृपा दिलाने का दावा कुछ इन शर्तों के साथ करते है जो सुनने में बहुत सरल पर करने में एवरेस्ट की चडाई से भी कठिन होती हैं. अब सुनिए इन तथाकथित गुरुओं की शर्तें.
1- शरणागत हो जाएँ.
शरणागत बड़ा सरल शब्द है पर इन २००० वर्षों में क्या कोई ईसा मसीह और रामकृष्ण परमहंस के अलावा शरणागत हो पाया? इन दोनों में भी ईसा जन्म से अवतारी पुरुष थे और रामकृष्ण परमहंस दिव्य सिद्ध पुरुष थे जो शरणागत भाव का अनुपम उदाहरण हैं. अहंकार और संशयात्मक ज्ञान  शरणागत  होने ही नहीं देता.
2- ईश्वर का सुमिरन प्रेम से अथवा समर्पण भक्ति से करना होगा.
प्रेम शब्द शरणागत से भी छोटा है पर इन २००० वर्षों में चैतन्य महा प्रभु के अलावा क्या कोई प्रेम कर पाया. प्रेम और भक्ति का कथन तो बहुतों ने कहा, गीत, भजन भी बहुत गाये.
3- गुरु पर विश्वास - जब तक जीव भाव है तब तक पूर्ण विश्वास नहीं हो सकता. संशयात्मक ज्ञान भटकाते रहता है. संशयात्मक ज्ञान के नष्ट हुए बिना  पूर्ण विश्वास नहीं हो सकता. इसी कारण श्री कृष्ण भगवान् को अपना विराट रूप दिखलाना पडा.
4-कुछ कहते हैं कि ईश्वर कृपा साध्य है, और अपने गुरु की कृपा की दुहाई देते है, कथा कहानी सुनाते हैं  पर क्रिया योगी लाहडी महाशय और विवेकानंद के अलावा कृपा साध्य का कोई  उदाहरण नहीं मिलता. इन सभी के अलावा कुछ नगण्य उदाहरण हो सकते है जो संसार को ज्ञात नहीं हैं. इस विषय के भी मूल में कर्म विधान ही है.
भगवद्गीता में श्री भगवान ने अनेक स्थानों में इस बात का संकेत दिया है कि कोई किसी का भाग्य बदल नहीं  सकता है और ईश्वर न किसी के पाप कर्म को न किसी के शुभ कर्म को ग्रहण करते  हैं।
विवेकानंद के विषय में रामकृष्ण कहा करते थे वह पुरातन सिद्ध ऋषि है.उसके लिए वह व्याकुल हो जाते थे. अतः अंगूठा लगाना और इस प्रकार विवेकानंद को आत्मबोध कराना मात्र कर्मबंधन था. प्राराब्द कर्मानुसार होनी अवश्यम्भावी है शेष खेल है चाहे सन्त खेले अथवा सामान्य मनुष्य.
ईसा ने अंधे को आंखे दी,कुष्ठ रोगी का रोग दूर किया, यह उन व्यक्तियों के कर्म फल थे जो वह भोग रहे थे और ईसा के दर्शन भी उनके  किसी शुभ कर्मों का परिणाम था और उसका फल वह भले चंगे हो गए.
आपको एक कथा सुनाता हूँ
नर नारायण नाम के दो भाई थे। यह दोनों राजा धर्म के पुत्र थे और परम शिव भक्त थे  इन दोनों ने हिमालय बद्रिकाश्रम के निकट कठिन तपस्या की। नारायण को परम बोध  प्राप्त हुआ परन्तु नर जीव ही रहा. कालांतर में नारायण श्रीकृष्ण और नर अर्जुन हुए ।
यह बड़ी अद्भुत कथा है. विचार कीजिये नर नारायण दोनों सगे भाई थे. दोनों में अति प्रेम था. दोनों ने एक साथ कठिन तपस्या की परन्तु निष्काम कर्म साधना के परिणाम स्वरूप केवल नारायण ही आत्मबोध को उपलब्ध हुए. यही नहीं अनेक जन्मों के बाद भी दूसरा भाई नर, जीव ही रहा और अर्जुन के रूप में जन्म लिया. स्वयं ईश्वर ने अपने भाई अपने प्रेमी और साथ के साधक का भाग्य नहीं बदला उसे अपनी शक्ति से आत्म बोध नहीं कराया.क्योंकि ईश्वर किसी भी जीव के पाप और पुण्य नहीं लेते हैं. ईश्वर का विधान अटल है, निश्चित है. उनका न कोई अपना है न पराया. वह सब के लिए समान हैं.
5-कुछ कहते है हमारे गुरु अथवा भगवान की कृपा मिलेगी पर पांच अथवा सात आज्ञाओं को मानना होगा.
कहने का तात्पर्य यह है कि घूम फिर के सभी देहिक अथवा मानसिक कर्म पर जोर देते हैं. सीधी बात इसलिए नहीं कहते क्योंकि साधक समझेगा जब सब उसे करना है तो फिर इनकी सेवा क्यों करूँ. यह सब असहाय हो जायेंगे.
दूसरी बात महत्वपूर्ण है कि जो कृपा करता है वह अगर मगर नहीं करता. सीधे कृपा करता है. ईश्वर सबके लिए एक सा बर्ताव करते हैं चाहे हिन्दू हो या ईसाई और मुसलमान, अच्छा हो या बुरा. ईश्वर क्या सूर्य, अग्नि, वायु आदि सभी के लिए समान कृपा करते हैं. सूर्य ने किसी से कहा कि इन आज्ञाओं का पालन करो तब धूप दूंगा. असमर्थ व्यक्ति बहाने बनाता है. ईसा ने किसी कृपा के लिए कोई शर्त नहीं रखी.  महावातार बाबा ने एक साधारण आदमी को क्रिया योगी लाहडी महाशय बना दिया इसी प्रकार रामकृष्ण परमहंस एक साधारण आदमी नरेन्द्र को विवेकानंद बना दिया.
भगवान कृष्ण ने बिना किसी शर्त के कुब्जा,द्रोपदी, अर्जुन आदि पर कृपा करी. यदि कृपा करनी है चाहे छोटी हो या बड़ी, तो कृपा करो शर्त क्यों जोड़ते हो या फिर जो विवेकसंगत बात है वह कहो और करो.

अब कर्म सिद्धांत की विवेचना करते हैं. कर्म के बिना कोइ प्राणी क्षण मात्र भी नहीं रह सकता फिर कर्म से द्वेष क्यों. शरीर, मन बुद्धि सदा गतिशील रहते हैं इसलिए क्षण मात्र भी कर्म के बिना नहीं रहा जा सकता. देहिक अथवा मानसिक कर्म सदा होते ही रहते हैं .अवतार को भी कर्म करने पड़ते है और बोध के लिए अक्रिय होना पड़ता है. इस विरोधाभास को समझें.
कर्म निम्नलिखित हैं.
सकाम कर्म -जो फल की इच्छा से किये जाते हैं. यह कर्म जीव बोध के कारण होते हैं.
निष्काम कर्म -जो कर्म शरीर से तो होते हैं पर उन कर्मो में अथवा कर्म फल में कोई लगाव नहीं होता.
यही अक्रियता है. दृष्टा रूप में सभी कर्म निष्काम कर्म  हो जाते हैं.
निषिद्ध कर्म- निंदनीय कर्म भी सकाम कर्म  हैं जैसे प्राणी मात्र को सताना आदि. यह निंदनीय कर्म जीव के कर्म और प्रमाद का परिणाम हैं.
कर्महीनता अकर्म है.

प्रश्न- फिर हमें क्या करना चाहिए?

उत्तर- ईश्वर संसार में और आपके अन्दर दो रूपों में रहता है.
1-जीव रूप में वह करने वाला और भोगने वाला है. वही जन्म देता है, वही मारता है, वही जीवन के खेल खेलता है.
2- दृष्टा रूप में वह ईश्वर है. वह देख रहा है कि उसका ही स्वभाव कर रहा है भोग रहा है. वह तटस्थ है.
अब आप के पास दो रास्ते है आप जीव होकर संसार भोगें. सुख दुःख का मजा लें और यह क्रम चलता रहे. आप दृष्टा होकर दिव्यता को प्राप्त करें. ईश्वर हो जाएँ. अपने नियंता हो जाएँ. कर्ता और भोक्ता होते हुए भी अकर्ता होकर इनके सुख दुःख से मुक्त हो जाएँ.
वह एक आत्म तत्व दोनों रूपों में आपके अन्दर है. आपके अन्दर जिसकी आवाज सुनाई देगी आप वह करेंगे.
ज्यादातर धर्म जीव धर्म -जीव स्वभाव पर आधारित है. इसलिए तुम जैसा करोगे वैसा भरोगे, इस पर सब आधारित हैं. इसी कारण करुणा, दया, परोपकार  को सभी धर्मो ने प्रमुखता दी.
दुसरे पर उपकार और दया करोगे तो प्रतिफल में दया मिलेगी, मदद मिलेगी. तुम दूसरे के प्रति  दीन होगे तो दूसरे तुम्हारे प्रति  दीन होंगे. स्वर्ग और सुख तुम्हारे दूसरे के प्रति कर्म (शारीरिक और मानसिक) निर्धारित करेंगे.
पर यदि तुम्हारे अन्दर जीव की आवाज के साथ ईश्वर की आवाज भी उठने लगी है तो तुम्हारे जागने का समय आ गया है.  दृष्टा होने का प्रयत्न करो. उसकी आवाज सुनो. अपने स्वभाव और कर्मो को देखो.
अंतिम निवेदन है कि तुम्हारे लिए तुम्हारा ईश्वर सबसे जाग्रत अवस्था में तुम्हारे अन्दर है उसकी आवाज सुनो. यही अंतिम धर्म है यही अध्यात्म है. यदि अपने अन्दर ईश अनुभूति से हट कर सब में ईश्वर देखोगे तो वह भी एक प्रकार का बुद्धि का बहकावा होगा. अपने से बाहर ईश्वर आत्म बोध के उपरान्त ही जाना जा सकता है.
यहाँ यह भी जान लीजिये कि ज्यादातर मनुष्य में ईश्वर के प्रति आकर्षण दुःख निवृत्ति के लिए और सुख सम्पत्ति की इच्छा से होता है और दुःख दूर होने और सुख सम्पत्ति प्राप्त होने पर ईश्वर के प्रति आकर्षण बढता है फिर जिज्ञासा होती है. जिज्ञासा की परिणिति ज्ञान है और ज्ञान होने पर ही अपने स्वरुप का बोध होता है. जब साधक परमतत्त्व को जानता है तभी  प्रेम, भक्ति और शरणागति प्राप्त होती है, तभी विश्वास होता है.  

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