Thursday, April 18, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - आस्तिक और नास्तिक - 59 - बसंत



प्रश्न- कोई कहता है ईश्वर है कोई कहता है ईश्वर नहीं  है. सत्य क्या है?

उत्तर -  जो ईश्वर को मानता है वह आस्तिक कहलाता है और जो ईश्वर को नहीं मानता है वह नास्तिक कहलाता है. यह आस्तिक और नास्तिक बातें मन की बाते हैं. मन का अर्थ ही संशयात्मक ज्ञान है. संशय कभी सत्य नहीं हो सकता. आस्तिक घोषणा करता है कि ईश्वर है..बुद्धि से अनेक तर्क देता है, पर उससे पूछो क्या तूने ईश्वर देखा है, क्या उसको महसूस किया है तो वह बगल झाकने लगेगा.
अब नास्तिक से पूछो तू  क्यों कहता है कि ईश्वर नहीं है तो वह भी तर्कों की झड़ी लगा देगा.
अनुभव दोनों को नहीं है, दोनों परम्परागत सोच पर अपनी अपनी धारणा बनाये हुए हैं. प्रयोग किसी ने नहीं किया. यथार्थ किसी के पास नहीं है. दोनों के सोच दोनों के तर्क उधार के हैं. कोई कहता है कि ईश्वर हो भी सकता है और नहीं भी. यह भी संशयात्मक ज्ञान वृत्ति है. यह भी बुद्धि की घोषणा है.
पर जो दोनों आस्तिक और नास्तिक की बात नहीं मानता, प्रयोग करता है, देखता है वह जान जाता है. वह कोई घोषणा नहीं करता. वह चुप हो जाता है. वह तटस्थ हो जाता है. तर्क वितर्क, विवाद समाप्त हो जाते हैं. ऐसा आत्मज्ञानी स्वयं में स्वयं को देखता हुआ शान्ति और आनंद को प्राप्त होता है.
यह जान लीजिये जब तक संशय है तभी तक आप आस्तिक अथवा नास्तिक हैं.
बोध प्राप्त व्यक्ति के पास कुछ भी कहने के लिए नहीं होता. वहां केवल पूर्णता होती है.

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