Friday, March 15, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 32 - बसंत



प्रश्न- कुण्डलनी शक्ति क्या होती है?
उत्तर- कुण्डलनी शक्ति होती भी है और नहीं भी होती है.

प्रश्न-आपके इस कथन का क्या मतलब है?
उत्तर- कुंडलिनी शक्ति के विद्वान, लेखक और उपदेशक जैसा  कुंडलिनी के बारे में बताते हैं वैसा कुछ नहीं है. कुंडलिनी एक प्रतीकात्मक शब्द है जिसको लेकर केवल भ्रम फेलाया जाता रहा है. वर्तमान युग में मानव शरीर रचना की सर्वाधिक जानकारी होने पर भी लोग कुंडलिनी  के विषय में भ्रम फेलाए जा रहे हैं.

प्रश्न-आपके अनुसार कुण्डलिनी क्या है?
उत्तर- मानव शरीर रचना परा (जीव) और अपरा प्रकृति (जड़) के मिलने से हुयी है. इसे जड़ चेतन का संयोग भी कह सकते हैं. इन दोनों का भी मूल कारण ज्ञान है जो परमतत्त्व है. यह विशुद्ध ज्ञान, अस्मिता बोध तत्पश्चात अस्मिता  की प्रतीति से अज्ञान के आवरणों से आच्छादित होता जाता है. मोटे रूप में यह चार आवरण हैं विज्ञानमय आवरण, मनोमय आवरण, प्राणमय आवरण, अन्नमय आवरण. शुद्ध चेतन्य ज्ञान इन आवरणों को स्वीकार करते हुए इनको ही अपना मानने लगता है और इनमें रम जाता है इसे ही अज्ञान कहते है. शुद्ध चेतन्य ज्ञान (आत्मा) का अपने अस्तित्व को भुला देना कुण्डलिनी का मूलाधार में सोया हुआ होना है.

प्रश्न-कुण्डलिनी जागरण क्या है?
उत्तर- ज्ञान का तमोगुण और रजोगुण से हट कर सत्व गुण की और प्रवाहित होना कुण्डलिनी जागरण है. तमोगुण और रजोगुण इन दोनों गुणों में अज्ञान रहता है इसलिए कहा जाता है की कुण्डलनी शक्ति सोयी हुयी रहती है. इन दोनों गुणों को छोड़कर जब ज्ञान सत्वगुण के साथ होता है तो बुद्धि निर्मल होने लगती है यह कुण्डलिनी का जागरण है, शरीर में परिवर्तन होने लगते हैं एक हलचल मच जाती है. इसको इस प्रकार समझिये एक वृत्त के तीन भाग हैं सतोगुण तमोगुण और रजोगुण. वृत्त के दो भाग तमोगुण और रजोगुण के मिलने से कुंडल की आकृति बनती है इसलिए इसे कुण्डलिनी कहा जाता है.

प्रश्न- कृपया विस्तार से स्पष्ट करें.
उत्तर- यह शरीर अन्नमय है और मनुष्य में शरीर और उसके अंग तथा निष्काषित पदार्थ जीव की जड़ता सुस्पष्ट करते हैं. यहाँ ज्ञान शक्ति सबसे कम हो जाती है.प्राणमय आवरण शरीर संचालन में प्रमुख भूमिका निभाता है .यहाँ ज्ञान शक्ति अन्नमय आवरण से अधिक होती है. मनोमय आवरण,मनुष्य के भाव, विचारों का जनक है .इसी के आधार पर शरीर कार्य करता है  यहाँ ज्ञान शक्ति अन्नमय आवरण और प्राणमय आवरण से अधिक होती है. विज्ञानमय आवरण अस्मिता की प्रतीति के लिए उतरदायी  है यहाँ यहाँ ज्ञान शक्ति अन्नमय आवरण, प्राणमय आवरण और मनोमय आवरण,से अधिक होती है. परन्तु इन चारों आवरणों में अज्ञान का अत्याधिक प्रभाव रहता है. यहाँ अज्ञान से तात्पर्य आवरणों को स्वीकार करते हुए इनको ही अपना मानने लगना है और इनमें रम जाना है और अपने यथार्थ स्वरुप को भूल जाना है.
हमारी प्रकृति त्रिगुणात्मक है. यह तीन गुण सत्व ,रज और तम हैं.
रज युक्त ज्ञान और तम युक्त ज्ञान को ही इडा, पिंगला कहा गया है और सुष्मना सत्व ज्ञान है जब भी किसी जीव मैं 50%से अधिक सत्व हो जाता है तो उसके अन्दर अपूर्व हल्कापन, तेज व् दिव्यता उसे अनभव होने लगती है. सीएनएस में ऊपर  के संवेदनशील केंद्र अधिक क्रियाशील होने लगते हैं.
आप कोइ भी निस्वार्थ शुभ कार्य करे तो आप पायेंगे आपके अन्दर कुछ घटित हो रहा है, सात्विक अन्न, जीव सेवा, नाडी शुद्धि एवं प्राणायाम, मन पर नियंत्रण का अभ्यास और अभिमान अथवा अहंकार कम कर सत्व बड़ता है. इन सभी में मन पर नियंत्रण और अहंकार कम करना सर्व श्रेष्ठ उपाय हैं. सत्व के बड़ते ही जो विलक्षण परिवर्तन आप में होते हैं वही कुण्डलिनी का जागरण है. विडम्बना है की मनुष्य को सीधी सरल बात में मजा नहीं आता जब तक उसे चमत्कारी अथवा लच्छेदार न बना दिया जाय. इसलिये कुंडलिनी योग के  विद्वान, लेखक और उपदेशक ने मनुष्य के रीड की हड्डी में  कहीं हाथी, कहीं भेड़, कहीं मगर बिठा दिये हैं. जगह जगह 4, 8, 16, 100, 1000 पंखुड़ियों वाला कमल रख दिया है. इन के देवता भी निर्धारित कर दिए हैं. इन में कुछ तो प्रतीकात्मक शब्द और चिन्ह हैं और कुछ निरर्थक भ्रमजाल फेलाने वाले हैं.

प्रश्न- सात चक्रों के विषय में आप क्या कहते हैं.
उत्तर-हमारे पिंड में सात स्थान सर्वाधिक संवेदनशील होते हैं इन्हें सात चक्र कहा है.सहस्रार चक्र का स्थान हमारे मस्तिष्क का मूल स्थान है और मूलाधार चक्र - गुदा और लिंग के बीच में मस्तिष्क का अंतिम विस्तार है. मस्तिष्क का मूल स्थान सहस्रार चक्र में स्थित 100% शुद्धता मूलाधार चक्र - अंतिम विस्तार तक आते आते शुद्धता सांसारिक होती जाती है और उसमे अज्ञान बड़ता जाता है. इसलिए शुद्ध ब्रह्म, जीव हो जाता है. वेदान्त, साँख्य, पातंजलियोग, भगवद्गीता, ब्रह्मसूत्र, विवेक चूड़ामणि आदि सभी प्रामाणिक शास्त्र इसे जीव शक्ति कहते हैं.जीव में जब सतोगुण की मात्रा बड़ती है तो वह अपने मूल स्वरुप की और बड़ता है यही कुण्डलिनी  जागरण है.





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