Tuesday, March 26, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 48 - बसंत


प्रश्न- आप कहते हैं की नवधा भक्ति के तीन अंग श्रवण, कीर्तन और स्मरण संभावित है पर इसके आगे पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य. आत्मनिवेदन आत्मज्ञान या उसी समकक्ष ऊँची अवस्था में पहुंचे बिना नहीं हो सकता. पहले तीन  चरण स्वरुप अनुसंधान से सम्बंधित हैं इसलिए कम अधिक मात्रा में हो सकते हैं. श्रवण कीर्तन और स्मरण में भी आप संभावना की कमी मानते है. ऐसा क्यों?

उत्तर- श्रवण -ईश्वर और उनके भक्तों का चरित्र को सुनना, ईश्वर का नाम सुनना और पढ़ना श्रवण भक्ति कही जाती है. अब आप चरित्र सुन या पढ़ रहे हैं, आपकी बुद्धि तर्क वितर्क करने लगती है ऐसा कैसे हो सकता है. सब हो गया गुड़ गोबर. आप ईश्वर का नाम सुन रहे हैं और ध्यान घरवाली, बाहरवाली, धन व्यवसाय, बैर आदि आदि में लगा है. अब खुद सोचें श्रवण से कितनी देर आप परमात्मा के नजदीक रहे. यदि क्षण दो क्षण रस आ भी गया तो थोड़ी साधना हो गयी. यही स्थिति कीर्तन में होती है. मुंह में नाम और मन में काम, कैसे बनेगा काम? स्मरण और कठिन है यह भी स्वास में मन से होना है. कबीर कहते हैं-
माल फेरत जग गया गया न मन का फेर.
फिर भी जो शरीर से किया है उसका हानि लाभ मिलता है और मिलेगा. शरीर से की क्रिया कर्म है. कर्म गुण दोषमय होते है. इसलिए वह श्रृद्धा के अनुरूप फल देते हैं इसलिए पहले तीन  चरण स्वरुप अनुसंधान से सम्बंधित हैं इसलिए कम अधिक मात्रा में हो सकते हैं,  मन कितना लगा, श्रृद्धा कितनी थी  इस पर भक्ति फलित होगी.

प्रश्न- पाद सेवन तो सरलता से हो सकता है उसे तो कर सकते हैं?
उत्तर-जीव स्वभाव संशयात्मक होता है. आप के गुरु या कोई महात्मा जिन को आप दंडवत प्रणाम करते हैं उनके विषय में आपके हृदय में दसियों बार संशय उठता होगा. आप तो किसी  के कहने से किसी की देखा देखी पाद वंदन करते हैं. फिर यदि संशय नहीं हुआ तो सांसारिक लोभ, कामना जोर मारेगी. फिर गुरु गोबर हुआ तो, सब भगवान मालिक है. यही स्थिति अर्चन, वंदन की भी है. विग्रह पूजा, अर्चन वंदन और भी कठिन है. पहिले तो मन साथ नहीं देता फिर विग्रह में प्राण स्वीकार कर अपने इष्ट को स्वीकारना कितना कठिन है.

अब प्रेमा भक्ति या समर्पण भक्ति को समझें.
तैतरीय उपनिषद् का वचन है- रसंह्येवायं लाब्ध्वानन्दी भवति
ईश्वर रस स्वरुप है उस रस को पाकर जीव आनंदित हो जाता है.
प्रेम हरी को रूप है त्यों हरि प्रेम रूप
इसीलिये भक्ति जो प्रेमा भक्ति या समर्पण भक्ति कहलाती है वह अत्याधिक कठिन है.
वह रस रुपी सागर है
रसो वै सः

चैतन्य देव महारास का वर्णन आते ही भाव में चले जाते थे. उनकी समाधि लग जाती थी.
चैतन्य देव,रामकृष्ण परमहंस तो स्वाभाविक रूप से योग सिद्ध पुरुष थे, इसलिए वह  प्रेमा भक्ति या समर्पण भक्ति कर सके. इसलिए सर्व प्रथम स्वाभाविक होने का प्रयास करें. जीव सेवा करें. हिंसा से दूर रहें. अपने अपने कर्मों अतवा ड्यूटी को निपुणता से करें. अपने प्रत्येक कार्य में और हानि लाभ में ईश्वर को धन्यवाद दें. ईसा मसीह का यह वचन सदा याद रखना 
धन्य हैं वह जो मन के दीन हैं.
अपनी खोज में लग जाएँ. खोज पूरी होने पर ही भक्ति मिलेगी. श्रवण कीर्तन और स्मरण,सेवन, अर्चन, आत्मनिवेदन भी जैसे तैसे करते रहें पर जान लीजिये यह आपके कर्म माने जायंगे, यह भक्ति तब होगी जब बोध हो जाएगा तभी राम से प्रेम  होगा और आप का अंतिम लाभ होगा -
राम सनेही ना मरे 


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