Tuesday, March 26, 2013

तेरी गीता मेरी गीता - 47 - बसंत



प्रश्न-भक्ति के विषय में आप का क्या अभिमत है.
उत्तर-जिसे लोग भक्ति जानते हैं उस समर्पण भक्ति अथवा प्रेमा भक्ति  का मार्ग बहुत कठिन है. इसलिए सभी भक्त और भक्ति को प्रणाम करते हुए उनकी कृपा की कामना करता हूँ.

प्रश्न- क्या कोई दूसरी भक्ति भी है.
उत्तर- आदि शंकराचार्य  कहते  हैं स्वरुप अनुसंधान ही भक्ति है.
यह भक्ति समर्पण भक्ति  की तुलना में बहुत सरल है. बुद्धि योग से स्वरुप अनुसंधान करना ज्यादा सरल और श्रेयस्कर है.
समर्पण बहुत कठिन है. यह स्वरुप ज्ञान के बाद तो हो सकता है पर उससे पहले यह असंभव है. सुनने सुनाने में भक्त चरित्र बड़ा सुखदाई और रोचक है पर यथार्थ में भक्त होना हिमालय को उंगली में उठाने जैसे कार्य से भी कठिन है. भक्त प्रहलाद, राधाजी, ब्रज गोपियां, हनुमान होना आत्मज्ञान से पहले असंभव है.
भगवद गीता का भक्ति योग, कबीर की भक्ति तो संभावित है इसी प्रकार नवधा भक्ति के तीन अंग श्रवण कीर्तन और स्मरण संभावित है पर इसके आगे पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य. आत्मनिवेदन आत्मज्ञान या उसी समकक्ष ऊँची अवस्था में पहुंचे बिना नहीं हो सकता. पहले तीन चरण स्वरुप अनुसंधान से सम्बंधित हैं इसलिए कम अधिक मात्रा में हो सकते हैं.
इसलिए जब आत्मज्ञान हुए बिना जब वास्तविक समर्पण भक्ति नहीं हो सकती  तो क्यों  न  पहले आत्मज्ञान का प्रयास किया जाय. अर्जुन जैसा योगी भगवान् के विराट स्वरुप को देखकर भी समर्पण भक्ति को प्राप्त नहीं हो सका.
अब  भगवदगीता के बारहवें अध्याय की विस्तार से चर्चा करूंगा.श्री भगवान् ने भक्ति के विषय में यहाँ बताया है.
श्री भगवान बताते हैं जो मन को सदा मुझमें लगाकर निरन्तर मुझसे जुडे़ रहते हैं, व्यवहार में मेरा स्मरण करते हैं; परम श्रद्धा से युक्त होकर जो निरन्तर मेरा भजन करते हैं, मेरी दृष्टि में वह योगी परम उत्तम हैं।
जो भक्त (ज्ञानी) इन्द्रियों को अष्टांग योग विधि द्वारा या अन्य प्रकार से भली भांति वश में करके सर्वव्यापी परमात्मा, जिसे कोई नहीं जानता, कोई नहीं बता सकता, सदा शुद्ध परम शान्त अवर्णनीय अवस्था में सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी परमात्मा को अनुभूत करने वाले, जो सब प्राणियों में सम भाव रखते हैं; स्वयं आत्म स्वरूप विश्वात्मा हुए, मुझ परमात्मा को प्राप्त होते हैं।
उस अव्यक्त जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार के द्वारा नहीं जाना जा सकता जो महत् से भी महत् है अर्थात अपरा और परा प्रकृति का भी आदि कारण हैं, के साधन, अनुभूति में शरीर धारी मनुष्यों को देह बुद्धि के कारण अत्याधिक परिश्रम करना पड़ता है क्योंकि जीव की देह आसक्ति अत्याधिक प्रबल है, यह छूटे  नहीं छूटती है। अतः अव्यक्त की उपासना अत्याधिक कठिन है। इस में चलना कुल्हाड़ी की धार पर चलना है।
परन्तु जो भक्त सदा मेरा चिन्तन करते हैं, अपने स्वाभाविक कर्मों को करते हुए कर्म और उनके फलों को परमात्मा को अर्पित कर देते हैं, उनका उठना, बैठना, सोना, खाना-पीना, व्यवसाय आदि सभी कर्म मेरे लिए होते हैं। जो न डिगने वाले अर्थात एक निष्ठ रूप से मुझसे जुड़े रहते हैं, मेरा ध्यान करते हैं, सदा मेरे समीप रहते हैं, स्मरण करते हैं, ऊँ का ही ध्यान करते हैं।
ईश्वर की सगुण-निर्गुण उपासना को अच्छी प्रकार समझना होगा। सगुण उपासना का अर्थ है सभी गुणों में परमात्मा का चिन्तन करना। अपने स्वभाव में रहते हुए अपने प्रत्येक कार्य को परमात्मा का कार्य समझते हुए उसे अर्पण करते हुए देखना। दूसरे रूप में साक्षी भाव से अपने शरीर को, मन, बुद्धि, अहंकार, इन्द्रियों व उनके कार्यों को देखना सगुण उपासना है। चिन्तन से परमात्मा से जुड़ना। अपने में आत्मरूप परमात्मा के दर्शन करना और सभी भूतों में विश्वात्मा के दर्शन करना। जगत (सगुण) में ब्रह्म देखना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी जगह जड़ चेतन में परमात्मा को महसूस करना “घट-घट रमता राम रमैया“ मन वाणी कर्म से महसूस करना सगुण भक्ति है। यही व्यवहार में स्मरण करना है। अव्यक्त जिसके बारे में न कुछ कहा जा सकता, न समझा जा सकता, न जाना जा सकता, वह अव्यक्त परब्रह्म एक स्थिति है, परमगति है। वहाँ स्मरण भी नहीं रहता, निराकार स्थिति भी बिना सहारे के हो जाती है। उसे तुरीयातीत अवस्था कहा गया है। वहाँ शून्य समाप्त हो जाता है, ज्ञान समाप्त हो जाता है अर्थात ज्ञान की क्रिया शक्ति शून्य होकर शान्त हो जाती है, अनहद् भी समाप्त हो जाता है अर्थात परमात्मा का संकल्प भी स्थित हो जाता है; केवल अव्यक्त परब्रह्म परमतत्व ही स्थित रहता है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए सभी इन्द्रियों को मन सहित अष्टांग योग विधि द्वारा विषयों की ओर जाने से रोक कर अथवा श्री भगवान के उपदेशानुसार शुद्ध स्थान में आसन जो न अधिक ऊँचा हो न नीचा लगाकर, सिर, गरदन, शरीर को एक सीध में करके नासिका के अग्र भाग को देखता हुआ तथा अन्य दिशाओं को न देखकर, प्राण वायु को रोककर, प्रशान्त मन होकर, परमात्मा के नाम ऊँ को प्राणों के साथ भौहों के मध्य में स्थापित करे तथा निरन्तर सतत् अभ्यास और वैराग्य से सिद्ध हुआ परम ज्ञानी अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होता है । वीतरागी पुरुष इन्द्रियों के व्यवहार से उदासीन हो विचरता है जबकि सगुण उपासक सभी कार्योँ को परमात्मा को अर्पण करते हुए सदा उसका स्मरण करता है।
जब भी कोई भक्त मुझमें अपना चित्त अर्पण करता है मैं उसमें प्रवेश कर जाता हूँ, वहाँ विराट होता जाता हूँ और एक दिन सम्पूर्ण चित्त को अपने में समाहित कर लेता हूँ। मेरा यह निश्चय भी है कि मैं अपने भक्त का योगक्षेम को वहन करूंगा। अतः भक्त का उद्धार अवश्य होता है।
मुझमें मन लगा, मुझमें बुद्धि लगा। जीव व इन्द्रियों के बीच में जो ज्ञान है वह मन कहलाता है। आत्मा और जीव के बीच जो ज्ञान है वह बुद्धि कहलाती है। दूसरे शब्दों में संशयात्मक ज्ञान मन है, निश्चयात्मक ज्ञान बुद्धि है। अतः मन और बुद्धि को मुझमें लगा। मन की दिशा बाहर की जगह मेरी ओर मोड़ दे तथा बुद्धि की दिशा भी जीव से आत्मा की ओर मोड़। इस प्रकार मन बुद्धि मुझमें लगाने से तू मुझ आत्मरूप परमात्मा में स्थित होकर उस अव्यक्त स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि तू मन को मुझमें (आत्मरूप) लगाने से असमर्थ है अर्थात तू यह समझता है कि हर समय मन आत्म चिन्तन में नहीं लगाया जा सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रहा जा सकता, ध्यान नहीं किया जा सकता आदि तो तू मन लगाने का मुझमें अवश्य अभ्यास कर। इससे मन की बाहर की दिशा रूकने लगेगी। उसकी आदत बदल जायेगी। वह विषयों से छूट कर आत्मा की ओर जाने लगेगा और धीरे-धीरे अभ्यास से इसका भटकना रूक जायेगा और यह आत्मा में विलीन हो जायेगा।
यदि अभ्यास करने में भी असमर्थ है, मन और इन्द्रियों को विषयों की ओर भटकने से रोकने में असमर्थ है, ध्यान, साधन आदि नहीं कर सकता, साक्षी भाव में स्थित नहीं रह सकता, अहंकार नहीं छोड़ सकता आदि तो भी मैं तुझे आत्म योग के लिए सरल उपाय बताता हूँ। तू अपने स्वाभाविक धर्म के आधार पर अर्थात जिस कुल में तेरा जन्म हुआ है तथा तेरे जन्मगत जो स्वाभाविक कर्म हैं उनको सरलता पूर्वक कर और सभी कर्म मुझे अर्पण कर दे। तेरा उठना-बैठना, खाना-पीना, व्यवसाय मेरे प्रति हो। मुझे सब कर्म अर्पित करते हुए तेरा मन, बुद्धि मुझमें एक निष्ठ हो जायेगी परिणामस्वरूप तू परम स्थिति को प्राप्त होगा।
यदि मेरे निमित्त कर्म भी तुझसे नहीं हो सकते अथवा तू अपने कर्म मुझे अर्पित नहीं कर सकता, तो यत्नशील होकर सभी कर्मों के फल को मुझे दे दे। जब तू कोई काम करे तो उस समय मेरा चिन्तन करे तथा जब वह कर्म समाप्त हो तो भी मेरा चिन्तन कर और उसका जो भी परिणाम हो उसे मुझ परमात्मा की इच्छा समझ। धीरे-धीरे इस अभ्यास से तू निष्काम होने लगेगा और तेरा योग सिद्ध हो जायेगा।
अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, ध्यान से सब कर्मों के फल का त्याग श्रेष्ठ है। त्याग से बुद्धि द्वारा परमेश्वर को जानना व जुड़ना श्रेष्ठ है, तत्पश्चात उसका चिन्तन, मनन, ध्यान, श्रेष्ठ है, उससे भी अधिक सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करते हुए अथवा इन्द्रिय दमन कर अनासक्त होकर निष्काम कर्म श्रेष्ठ है। निष्काम कर्म होने से चित्त की उद्विग्नता जाती रहती है और स्वाभाविक रूप से शान्ति प्राप्त होती है।

उपरोक्त स्थिति प्राप्त होने के बाद-
जो श्रद्धा युक्त पुरुष मुझमें अपना मन बुद्धि स्थापित करके इस परम आत्म ज्ञान का सेवन करते हैं, उन्हें आत्मरूपी अमृत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होता है और आत्म स्थित ऐसे पुरुष मुझे अति प्रिय हैं।
यहाँ मुझे प्रिय है का अर्थ है सदा आत्मरूप परमात्मा को प्रिय हैं। यहाँ से समर्पण भक्ति प्रारम्भ होती है.



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