Tuesday, March 5, 2013

तेरी गीता मेरी गीता -27- बसंत


प्रश्न-  हमारे अन्दर प्रकृति के तीन गुण सत्व रज तम क्या हैं और उनका परिणाम क्या है ?
उत्तर- पहले संक्षेप में सुनिए यह संसार ज्ञानमय होते हुए भी ज्ञान की मात्रा और विक्षोभ के कारण मुख्य रूप से त्रिगुणात्मक हो गया है. यह तीन गुण हैं सत्व, रज, तम.यह तीन गुण निम्न लिखित परिणामों का प्रतिनिधत्व करते हैं.
तम - अज्ञान और मति भ्रम
रज -  क्रिया और काम
सत्त्व - ज्ञान और प्रसन्नता
आप देखिये मनुष्य जीवन की हर परिस्थिति भिन्न भिन्न मात्रा में ज्ञान, अज्ञान और काम जिसे वासना भी कहते हैं से भरी हुई है. थोड़ा विस्तार से इन्हें अज्ञान, मति भ्रम, दुःख, ज्ञान और प्रसन्नता, क्रिया, काम और क्रोध के रूप में देखा जा सकता है.कभी ज्ञान है तो कभी अज्ञान कभी दुःख है तो कभी सुख आदि.आपकी मानसिक स्थिति सदा इन गुणों के आदीं रहती है. आपके विचार इन्हीं गुणों का  प्रतिनिधत्व करते हैं.

अब इस पर विस्तार से चर्चा के लिए आपको भगवद्गीता के ज्ञान की ओर ले चलता हूँ. श्री भगवान् ने भगवद्गीता  में प्रकृति के तीन गुण सत्व रज तम पर विस्तार से चर्चा की है. श्री भगवान्  बताते हैं कि प्रकृति अर्थात ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के भिन्न भिन्न मात्रा में कार्य करने से गुण उत्पन्न होते हैं। इन्हें तीन भागों में विभाजित किया है। यह हैं सत्त्व, रज, तम।
सत्त्व में ज्ञान शक्ति अधिक होती है, रज में क्रिया शक्ति अधिक होती है और तम में ज्ञान शक्ति लगभग लुप्त होती है, क्रिया शक्ति अति अल्प होती है। यह तीनों गुण अविनाशी अव्यक्त आत्मतत्व परमात्मा को इस शरीर में मोहित कर बांधते हैं। प्रकृति के गुणों के कारण ही आत्मा में जीव भाव उत्पन्न होता है।
सत्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है (विशुद्ध आत्मतत्व सतोगुण के पाश में बंधा जीवात्मा अहंकार युक्त रहता है) रजोगुण लोभ को जन्म देता है और तमोगुण से प्रमाद, मोह और मूढ़ता उत्पन्न होते हैं ।

प्रश्न- प्रकृति (माया) किस प्रकार अविनाशी आत्मा को अपने जाल में फंसाती है।

उत्तर- सतोगुण सुख और ज्ञान के माध्यम में अविनाशी आत्मा को फंसाता है अर्थात वह ज्ञान देता है और ज्ञान का अहंकार भी उत्पन्न करता है और ज्ञानी होने का अहंकार उसे मिथ्या सुख से भ्रमित कर देता है। वह सच्चे ज्ञान व सच्चे आनन्द को भूल जाता है।
रजोगुण सदा आत्मा को बहलाता है क्योंकि राग रूप रजोगुण का जन्म कामना और आसक्ति से होता है और संसार के विभिन्न रूपों की कामना उनमें आसक्ति प्राप्त होने पर बढ़ती ही जाती है। पहले थोड़ा मिला उसका सुख उठाया, फिर ज्यादा की इच्छा हुयी, आसक्ति बढ़ी, उसके लिए कार्य बढ़े (कर्म की इच्छा बढ़ी) और फल से सम्बन्ध बढ़ा, इस प्रकार देह स्थित आत्मा को जीव भाव की प्राप्ति होती है और वह जीवात्मा शरीर से बंध जाता है।
तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है, यह आत्मा को पूर्ण रूपेण भ्रम में डाल देता है, वह अपना स्वरूप पूर्णतया भूल कर जीव भाव को प्राप्त इस शरीर को ही अपना स्थान, अपना स्वरूप मान बैठती है। प्रमाद, आलस्य और नींद इस तमोगुण के हथियार हैं, इनके द्वारा मन मूढ़ बन जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है, कर्म की इच्छा नहीं होती। उसकी बुद्धि कुम्भकर्ण जैसी हो जाती है जिसने तपस्या का फल छह माह की नींद मांगी। नीद को ही वह जीवन की सर्वोत्तम निधि मानता है। इसी में आनन्द अनुभव करता है।
सतोगुण जीव में सुख का भाव उत्पन्न करता है। रजोगुण भी कामना और आसक्ति के माध्यम से सुख प्रदान करते हुए उसे अधिक-अधिक कर्म में लगाता है और तमोगुण उसके ज्ञान को ढक कर प्रमाद में लगाता है, उसे अज्ञान में सुख मिलता है। परन्तु यह सभी मिथ्या सुख क्रमशः अहंकार वश, आसक्ति वश और अज्ञान वश उत्पन्न होते हैं।
सभी जीवों में तीनों गुण भिन्न भिन्न मात्रा में होते हैं। कर्म प्रारब्ध और परिस्थिति वश गुणों की मात्रा में अन्तर भी आता है। जब देह में समस्त इन्द्रियों और मन में ज्ञान और विवेकशक्ति उत्पन्न होती है तो सतोगुण बढ़ा होता है।

प्रश्न - गुणों के प्रभाव से क्या करने की इच्छा पैदा होती है?

उत्तर- जब रजोगुण बढ़ा होता है तो उस समय लोभ और सकाम कर्म करने की इच्छा उत्पन्न होती है और जीव कर्म में लग जाता है। फिर इच्छा पूरी हुयी तो उसकी पूर्ति के लिए अधिक से अधिक कर्म और विषय भोग की लालसा भी उत्पन्न होती है और इच्छा पूरी नहीं हुयी या भोग प्राप्त नही हुए तो अशान्ति उत्पन्न होती है। तमोगुण के बढ़ने पर मन, बुद्धि में अज्ञान छा जाता है, कर्म करने की भी इच्छा नहीं होती। प्रमाद, आलस्य, निद्रा यह सब उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न-क्या गुणों का प्रभाव मृत्यु के समय में भी काम करता है?
उत्तर- जब मनुष्य सत्वगुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात जब देह त्यागता हैं तो
सतोगुण से ‘सुकृत’ (श्रेष्ठ आचरण) का जन्म होता है परिणामतः ज्ञान और निर्मल फल की प्राप्ति होती है। रजोगुण से उत्पन्न कर्म का अन्तिम परिणाम अशान्ति और दुःख है और तमोगुण मूढ़ता को जन्म देता है।

प्रश्न- भिन्न भिन्न गुणों में स्थित पुरुष मृत्यु के बाद किस गति को प्राप्त होते हैं ?

उत्तर- सत्वगुण में स्थित पुरुष ऊर्ध्व गति को प्राप्त होते हैं अर्थात योगभ्रष्ट और विद्या विनय सम्पन्न घरों में जन्म लेता है। रजोगुण में स्थित पुरुष मध्य गति को प्राप्त होते हैं अर्थात सकामी, लोभी, सांसारिक लोगों के घर में जन्म लेते हैं और तमोगुणी पुरुष नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात मूढ़ योनियों में जन्म लेते हैं।
ज्ञान में देह बुद्धि होने के कारण, श्रेष्ठ आचरण करने वाले विद्यावान और योगियों के घर में जन्म लेता है। योग भ्रष्ट पुरुष का जन्म इसी कारण होता है। रजोगुण की वृद्धि होने पर मति किसी खास कर्म अथवा उसके फल भोग आदि में होती है अतः मृत्यु के बाद वह आसक्ति वाले रजोगुणी परिवार में जन्म लेता है और तमोगुण के बढ़ने पर जब मृत्यु होती है तो घोर तमस (अज्ञान) के कारण मति मूढ़ हो जाती है अतः अगला जन्म मूढ़ योनियों में होता है।

प्रश्न- इन तीन गुणों को कम और अधिक कैसे किया जा सकता है.
उत्तर- रज और तम को दबा दिया जाय तो सतोगुण बढ़ता है। सतोगुण और तमोगुण को दबा कर रजोगुण बढ़ता है तथा सत्त्व और रज को दबाकर तमोगुण बढ़ता है।

प्रश्न-क्या इन तीन गुणों और उसके परिणामो को देखकर अलग रहा जा सकता है.

उत्तर- जिस समय मनुष्य दृष्टा भाव से स्थित रहता है और सत्त्व, रज, तम इन तीन गुणों को कर्ता देखता है, उस समय साक्षी भाव से कर्मों के कर्तापन से निर्लिप्त अर्थात अहंकार से मुक्त होकर परम स्थिति को तत्व से जानता है।

प्रश्न- उस समय गुणों और उसके परिणामो अलग पुरुष की स्थिति क्या होती है?

उत्तर- उस समय इस शरीर की उत्पत्ति के कारण इन तीनों गुणों का; साक्षी भाव से स्थित पुरुष, तत्व को जानते हुए उल्लंघन कर जाता है और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था सब उसके लिए खेल हो जाते हैं। देह उसके लिए सांप की केंचुली के समान हो जाता है। अतः देह भाव से निर्लिप्त वह मेरे स्वरूप (आत्म तत्त्व) को प्राप्त होता है।
आत्म स्वरूप में स्थित, सदा साक्षी भाव से देखता हुआ सतोगुण रूपी ज्ञान और उसके अहंकार, रजोगुण की कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण के भ्रम व मूढ़ता भाव यदि आते हैं तो उनमें यदि प्रवृत्त होता है तो बिना किसी आसक्ति और द्वेष के और यदि उन त्रिगुण भावों से अलग होता है तो उनकी कोई कामना नहीं करता क्योंकि उसे कर्म का अथवा अपने गुणों का कोई अभिमान नहीं होता, वह समुद्र के जल की तरह स्थित रहता है।
वह उदासीनवत् अर्थात सुख-दुःख, हानि-लाभ में समान रहता हुआ किसी भी गुण से विचलित नहीं किया जाता है क्योंकि वह जानता है कि प्रकृति के गुण ही, गुण और कर्म का कारण हैं, वह यह जानकर गुणों के खेल को देखता रहता है। जिस प्रकार आकाश, वायु से प्रभावित नहीं होता उसी प्रकार वह आत्मरत पुरुष गुणों से प्रभावित नहीं होता और सदा आत्म स्थित रहता है और इस परम स्थिति से कभी भी विचलित नहीं होता।
वह पुरुष सम्पूर्ण जगत को ब्रह्ममय देखता है इसलिए वह सुख और दुःख को समान समझता है। उसके लिए मिट्टी पत्थर सब एक समान हो जाते है, प्रिय अप्रिय कोई नहीं रहता। सदा समभाव में स्थित रहता है। कोई उसकी निन्दा करे अथवा स्तुति उसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। उसकी बुद्धि सदा आत्म स्थित रहती है।
कोई उस व्यक्ति का अपमान करे, अपशब्द कहे अथवा उसकी महात्मा, ज्ञानी, ईश्वर समझकर पूजा करे, वह दोनों स्थितियों में सम रहता है। मित्र और वैरी उसके लिए समान हैं, दोनों में वह आत्म स्वरूप को देखता है शरीर में स्थित गुणों के कार्यों को देखकर मुस्कुराता है। उसकी अहं बुद्धि समाप्त हो जाती है अतः कर्तापन के भाव से रहित है। सदा साक्षी भाव से स्थित रहता हुआ तीनों गुणों का उल्लंघन कर जाता है।
वह न भटकने वाली बुद्धि से परमात्मा में एकत्व रखता है, सदा आत्मतत्व में रत रहता है, स्वरूप, अनुभूति में निमग्न रहता है, वह तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। वह भुना हुआ बीज हो जाता है जिससे अंकुर नहीं फूटता है। इसी प्रकार उसके अन्दर अहं और आसक्ति का भाव कभी नहीं आता है। इस प्रकार परमात्मा से एकत्व रखने वाला पुरुष उसी परमतत्व, परमगति को प्राप्त होता है।

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