Monday, March 25, 2013

तेरी गीता मेरी गीता- 45- बसंत



प्रश्न- आजकल संत मत के कुछ प्रचारकों में घमासान मचा हुआ है. परमात्मा के नाम का अर्थ अनर्थ करके कुछ का कुछ सिद्ध किया जा रहा है. इस विषय में आपका क्या अभिमत है?
उत्तर- देखो किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए. जिसकी जैसी श्रृद्धा होती है तदनुरूप वह व्यवहार करता है. त्रिगुणात्मक प्रकृति का खेल बड़ा निराला है. सत्वगुण ज्ञान देता है पर ज्ञान के साथ ज्ञान का अहंकार भी देता है. जो जिस प्रकार ईश्वर को भजता है ईश्वर उसी प्रकार उसे भजते हैं.
संतमत में गुरु को ईश्वर मान पूजा की जाती है फिर जो अपने गुरु को जैसा ईश्वर मानना चाहे, यह उसकी श्रृद्धा है. गुरु फलीभूत नहीं होता, फलीभूत श्रृद्धा होती है. यदि कोई मनुष्य चार पेरोंवाले गधे को भी अपना गुरु बनाले तो उससे भी सहिष्णुता सीख सकता है. दतात्रेय का उदाहरण प्रसिद्ध है. आजकल हमारे देश में भीड़ इकट्ठा करने की बीमारी लग गयी है. लोग अपने जिन गुरुओं के आधार पर खंडन मंडन करते हैं, खंडन मंडन करते हुए वह अपने गुरु की मूल बात भूल जाते हैं. जनता पैसा दे रही है उसे तो स्वर्ग में एक सीट चाहिए, मीडिया चेनल को पैसा कमाना है, क्योंकि यह उनका व्यापार है इसलिए कुछ ताम झाम जुटा लीजिये और संत, गुरु, जगतगुरु जो भी बनाना है बन जाइये. यहाँ तक कि भगवान बनने और बनाने की होड़ मची है. सब स्वर्ग का टिकट बाँट रहे हैं. ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करें.
मुझे  उपनिषद का वचन स्मरण हो आता है-
सामान्य व्यक्ति म्रत्यु के बाद अंध लोकों में जाते हैं परन्तु ज्ञान के अहंकारी घोर अंध लोकों को प्राप्त होते हैं.

प्रश्न- पांच नाम, तीन नाम, दो नाम, आदि नाम, सार नाम, सार शब्द क्या हैं?
विद्वानों का प्रपंच है. तुम जो हो तुम्हारे जैसे कर्म हैं, तुम्हारी जो, जैसी श्रृद्धा है तदनुसार तुम्हारा जीवन और तुम्हारी गति होगी.
जब परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है सब में व्याप्त है तो सब नाम उसी के हैं.
कुछ संत मतके अनुसार - पांच नाम हैं- ऐं, ह्रीं ,क्लीं, श्रीं, सोऽहं                                                                                      
अन्य के अनुसार -सोऽहं ,निरंजन, निरंकार, शक्ति और ओंकार
कुछ के अनुसार  श्री गणेश जी, श्री ब्रह्मा सावित्री जी, श्री लक्ष्मी विष्णु जी, श्री शंकर पार्वती जी व दुर्गा माँ का नाम जप देते हैं। जिनका वास सेंट्रल नर्वस सिस्टम  में बने संवेदनशील केन्द्रों में होता है।  इन सब देवी-देवताओं के बीज मंत्र भी हैं. जीव की बुद्धि निर्मल करने में इन केन्द्रों का योगदान माना है.
तीन नाम- ॐ तत्, सत्, यह शब्द नारायण के लिए आये हैं. अव्यक्त से भी अव्यक्त के लिए भी इनका प्रयोग होता है.
दो नाम-ॐ और तत्
आदि नाम - बिना नाद का शब्द है. बिना अक्षर का शब्द है .इसे अनुभूत किया जाता है. यह अव्यक्त, ब्रह्म के लिए आया है इसे अवनाशी, अक्षर, ब्रह्म, अव्यक्त, पारब्रह्म, परम ब्रह्म , आत्मा, परमात्मा भी कहते हैं. यह केवल उपलब्धि का विषय है. वेदान्त के अनुसार ॐ की चोथी मात्रा आदि नाम का बोध कराती है.
इसके लिए कबीर कहते हैं
सुन्न के परे पुरुष को धामा। तहँ साहब है आदि अनामा।।

ज्यादातर संत मत के लोग कबीर से प्रभावित हैं. कबीर कहते हैं जब कोई शिष्य होने के लिए आये तो उसे खिला पिला के विदा करो. यदि शिष्य में कुछ जान दिखे तो उसे ज्ञान के प्रति कुछ जिज्ञासा हो तो उसे ज्ञान की मोटी मोटीबात बताओ. इसके बाद जब उस शिष्य को निश्चय हो जाय, उसका विशवास द्रड़ हो जाए तब उसे ज्ञान का रहस्य बताओ.

प्रथमहि शिष्य होय जो आई, ता कहैं पान देहु तुम भाई।।1।।
जब देखहु तुम दृढ़ता ज्ञाना, ता कहैं कहु शब्द प्रवाना।।2।।
शब्द मांहि जब निश्चय आवै, ता कहैं ज्ञान अगाध सुनावै।।3।।

इसी प्रकार सार शब्द, तत्व ज्ञान किसे देना चाहिए इस विषय में कहते हैं-

बालक सम जाकर है ज्ञाना। तासों कहहू वचन प्रवाना।।1।।
जा को सूक्ष्म ज्ञान है भाई। ता को स्मरन देहु लखाई।।2।।
ज्ञान गम्य जा को पुनि होई। सार शब्द जा को कह सोई।।3।।
जा को होए दिव्य ज्ञान परवेशा, ताको कहे तत्व ज्ञान उपदेशा।।4।।

यहाँ तीन बातें महत्वपूर्ण हैं. स्मरन देहु -मन्त्र प्रदान करें.
सार शब्द और तत्व ज्ञान इसके लिए पात्रता भी बतायी है. पर आजकल तो दीक्षा और नाम दान की होड़ मची है.
सार शब्द  - यह अति महत्वपूर्ण शब्द है और किसी ने भी इसे प्रकट नहीं किया है. कबीरदास जी ने मात्र इतना लिख दिया.
सार शब्द जाने बिना कागा हंस न होई
इसी के पास चले जाएँ  कोइ संत ऐसा  कोइ  नाम मंत्र नहीं दे सकता जो सार शब्द हो. तो क्या सार शब्द नहीं होता है. यह बहुत गूड़  बात है और इसे  आप सबके समक्ष तेरी गीता मेरी गीता -४४ में प्रस्तुत किया गया है.

प्रश्न- उक्त विषय में शास्त्र क्या कहता है?
उत्तर- शात्रानुसार केवल तीन स्थिति के तीन नाम हैं-
1ब्रह्म -अव्यक्त पुरुष, शब्द ब्रह्म, परम ब्रह्म, अपर ब्रह्म सब ब्रह्म के श्रद्धामय नाम हैं. इसे ही आत्मा, परमात्मा, नारायण, ईश्वर कहा है. विद्वानों ने मानसिक श्रम के लिए ज्ञान की अवस्थाओं और दिव्यताओं के आधार पर यह या अन्य नाम दिए और अवस्था बतायी है पर यहाँ भेद कुछ नहीं है.जिसने एक पाया उसने सब पाए.
२ जीव-यह भी अव्यक्त पुरुष है. यह ब्रह्म का ही प्रति रूप है.
3 महत ब्रह्म- माया- योग माया और त्रिगुणात्मक माया-इसे ही अष्टांगी भी कहा है. इसके भी अनेक नाम हैं.
श्री भगवान् ने भगवद्गीता में इनको ही उत्तम पुरुष परमात्मा, परा और अपरा प्रकृति कहा है. इनको ही अधियज्ञ. अधिदेव और अधिभूत कहा है.

इन तीनो के विद्वानों ने भ्रम फेलाने वाले अनेक विभाग कर दिए. इसलिएकुछ महत्वपूर्ण बात जान लीजिये
1 ईश्वर यद्यपि सब जगह है परन्तु सबसे अधिक जाग्रत अवस्था में मनुष्य के अन्दर है. वह एक है.
एकोहम द्वितियोनास्ति
उसके नाम आपने दिए हैं. उसका कोई नाम नहीं है. आप जितने नाम देना चाहें दे सकते हैं. परमात्मा आपके इस देन लेन से निर्लिप्त है.
2- ॐ में चार मात्राएँ हैं अ ऊ म और अं का बिंदु यह चार मात्राएँ  सृष्टि के जन्म, विस्तार, लय और अव्यक्त स्थिति को बताती हैं. इसलिए इसे परमात्मा का पर्यायवाची माना गया है. तत् अर्थात तू ही है, तू जो सृष्टि से परे है,  सत् अर्थात जिससे अज्ञान नष्ट होता है.

अब कुछ ने आपके शरीर के चक्रों(संवेदन केन्द्रों) में देवता बता दिए. यह मात्र उनका मति भ्रम है.
सृष्टि में सब कुछ ज्ञान की अवस्थाएं हैं. जब वह पूर्ण विशुद्ध रूप में है तो ब्रह्म. अज्ञान और ज्ञान मिला  जुला है तो जीव और अज्ञान और भ्रम है तो माया. इनको  कम अधिक जोड़कर जितने चाहे उतने    बना लीजिये. सत्यता मात्र इतनी है कि एक से दो बने और फिर दो आपस में मिले तो तीसरा बना.फिर
दूसरे और तीसरे के मिलने से बनते ही गए, बनते ही जा रहे हैं.
भक्तों और गुरु पूजकों के साथ बड़ी विडम्बना ही यह अपनी धुन में अपने गुरु को दूसरे के गुरु से बड़ा, ओर बड़ा बनाते जाते हैं जैसे किसी ने कहा  मेरे गुरु ब्रह्म हैं तो दूसरा अपने गुरु को परम ब्रह्म सिद्ध करता  है तीसरा कहेगा कि मेरे गुरु परात्पर ब्रह्म हैं. कोई कहता है मेरा गुरु 12 ब्रह्मांडो का स्वामी है तो दूसरा 24 तीसरा २८ कहता है, होड़ मची है....कुछ ही दिन  में 40 .100, 120 आदि ब्रह्मांडो का स्वामी होते जायंगे. गुरु नहीं हुआ गुब्बारा हो गया. फूँक मारते जाओ फुलाते जाओ. शिष्यों और भक्तो की इस प्रतिस्पर्धा से वास्तविक ब्रह्मज्ञानी गुरु भी मोल भाव की सामग्री बन जाता है.
कुछ महत्वपूर्ण बातें -
भगवद्गीता और वेदान्त कहते हैं कि केवल मेरे एक अंश ने सृष्टि को धारण किया है.
श्रद्धामय यह पुरुष है जो जैसा वह स्वयं है.
श्री भगवान् भगवद्गीता में बताते है की व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है उसी अनुरूप यह परम आत्मा तदाकार हो जाता है. आपको जो भी प्रभु का नाम अच्छा लगे आप उसी रूप में उसे याद करें.
इसी प्रकार कहते हैं
ईश्वरः सर्वभूतानाम हृदये तिष्ठति अर्जुनः
ईश्वर सभी प्राणियों के चित्त में सदा रहता है.
कबीर कहते हैं
तेरा साईं तुझ में जाग सके तो जाग.
यदि अपना कल्याण चाहते हो तो विवाद से दूर हो जाओ. दूसरे के गुरु का आदर करो, दूसरे के पंथ का आदर करो, दूसरे के धर्म का आदर करो. यदि आदर नहीं कर सकते हो तो निरादर मत करो. उनके विषय में जानकारी प्राप्त करो. कोई संदेह है तो सम्मनित तरीके से पूछो. तर्क वितर्क विद्वानों के लिए छोड़ दो क्योकि विद्वान की सद्गति कठिन है.
ज्ञान के अहंकारी घोर अंध लोकों को प्राप्त होते हैं.

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